Skip to main content

Nityanand Katha by HH Haladhara Swami Maharaj | ISKCON Kanpur

परम पूज्य हलधर स्वामी महाराज : “00:21” ठीक है नहीं मिल रहा है तो छोड़ दीजिए,दूसरा “अक्रोधपरमानंद” निकाल लीजिए।


भक्त - अक्रोधपरमानंद?


परम पूज्य हलधर स्वामी महाराज : “निताई मोर” मिल रहा है? मिल गया? दे दीजिए मै देख लेता हूँ। है न, वो अक्रोधपरमानं।ठीक है…


श्रीमन नित्यानंद प्रभु की जय!  

गौर सुंदर भगवान की जय ! 


निताई मोर जीवनधन निताई मोर जाति। 

निताई विहिने मोर आन नाहि गति ।।१।।

संसार सुखर मुखे तुल्या दिया छाइ।

नगरे मागिया खाब गाहिया निताई ।।२।।

जे देशे निताई नाइ से देशे ना जाब। 

निताई विमुख जनार मुख ना देखिब ।।३।।

गंगा जार पदजल हर शिरे धरे। 

हेन निताई ना भजिया दुःख पाइ मरे ।।४।।

लोचन बले मोर निताई जेबा नाहि माने। 

आनल भेजाई तार माझ मुख खाने ।।५।। 


लेखक - लोचन दास ठाकुर 

गीत - निताई मोर जीवनधन 

पुस्तक - श्री कृष्ण-गीता चिंतामणि 


जय निताई जय निताई जय निताई जय निताई जय निताई। 

जय नित्यानंद राम जय नित्यानंद राम जय नित्यानंद राम जय नित्यानंद राम जय नित्यानंद राम । 

जय गौर सुंदर जय गौर सुंदर गौर सुंदर जय गौर सुंदर। 


जय जय प्रभूपाद प्रभूपाद प्रभूपाद श्रील प्रभूपाद।  

जय जय गुरुदेव गुरुदेव गुरुदेव श्रील गुरुदेव। 


निताई गौर हरिबोल हरिबोल हरिबोल गौर हरिबोल। 


परम दयालु परम कारुण्य श्रीमान नित्यानंद प्रभु की जय! 

गौर सुंदर भगवान की जय! 

पतित पावन गौर नित्यानंद प्रभु की जय! 

श्रील प्रभूपाद जी महाराज की जय! 

समवेत वैष्णव भक्त-वृंद की जय! 

निताई गौर प्रेमानांदे हरि हरिबोल। 

हरे कृष्ण! 


ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। 

चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥ 


श्री चैतन्य मनोभीष्ठं स्थापितं येन भूतले।  

स्वयंरूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदांतिकं॥ 


वंदेऽहं श्रीगुरोः श्रीयुतपदकमलं श्रीगुरुन् वैष्णवाँश्च,
श्रीरूपं साग्रजातं सहगण रघुनाथान्वितं तं सजीवम्।
साद्वैतं सावधूतं परिजन सहितं कृष्ण चैतन्य देवं,
श्री राधाकृष्ण पादान् सहगण ललिता श्री विशाखान्वितांश्च॥ 

नमः ॐ विष्णु पादय, कृष्ण पृष्ठाय भूतले, 

श्रीमते भक्तिवेदांत स्वामिन इति नामिने । 

नमस्ते सारस्वते देवे गौर वाणी प्रचारिणे, 

निर्विशेष शून्य-वादी पाश्चात्य देश तारिणे ॥  

हे कृष्ण करुणासिन्धो दीनबन्धो जगत्पते।

गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोऽस्तु ते।।


तप्तकाञ्चनगौराङ्गी राधेवृन्दावनेवरी।

वृषभानुसुते देवी प्रणमामी हरिप्रिये ।। 


वाञ्छा-कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च।

पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः ।। 


नमो महावदान्याय कृष्ण-प्रेम-प्रदाय ते।

कृष्णाय कृष्ण-चैतन्य-नाम्ने गौरत्विषे नमः।। 


(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानन्द। 

श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि-(श्री)गौरभक्तवृन्द ।। 


हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे। 

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।। 


ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय  


सभी आचार्य लोगों की कृपा से, गुरुवर्ग की कृपा से, वैष्णव लोग की महती कृपा से, हम लोग प्रभुपाद जी की दया से, हम लोग को ऐसा सत्संग प्राप्त हो रहे हैं। 


हम सुन रहे थे नितानंद प्रभु जी की दया, गौर निताई। 

हरि बोल…हरे कृष्ण, sound (आवाज़) ज्यादा बढ़ा दो…हरे कृष्ण, ठीक है।

यह गौड़ीय संप्रदाय की जो वैशिष्ट्य है नित्यानंद प्रभु और महाप्रभु की जो कृपा है और आचार्य लोगों की, गौर नित्यानंद के आश्रित, गौर भक्त बोलते हैं। उन लोगों की कृपा से हम लोग इस सिद्धांत और भक्ति में जो रस हमको प्राप्त हो रहा हैं।


 “दुइ भाइ हृदयेर क्षालि' अन्धकार।

 दुइ भागवत-सङ्गे करान साक्षात्कार ॥”


अनुवाद - लेकिन ये दोनों भाई [भगवान चैतन्य और भगवान नित्यानंद] हृदय के आंतरिक केंद्र के अंधकार को दूर करते हैं, और इस प्रकार वे दो प्रकार के भागवतों [व्यक्तियों या वस्तुओं के संबंध में] से मिलने में मदद करते हैं।

(चैतन्य चरितामृत आदि लीला - 1.98)


कल हम सुन रहे थे साक्षात्कार करन थे, उनकी कृपा से तदीय वस्तु प्रकट होते हैं, प्रकाशित होते हैं। गौर नित्यानंद की कृपा और दूसरे दूसरे जो अवतार थे, वह लीला करने के लिए आए थे। लीला करना पार्षद लोग को लेकर, जैसे भगवान कृष्ण आए थे, राम जी आए थे, ये पार्षद लोग का साथ लीला करना, लीला अस्वाधन करना। यह वशिष्ठता लीला। लीला जैसे जीव स्मरण कर सकता है, मनन कर सकता है लेकिन हम कलयुगी आदमी है न,हृदय सिद्ध नहीं हैं। लीला स्मरण नहीं होता है।जब मानसिक स्तर पर हम दुखी है, मन का दो एक बड़ा काम होता है सुख और दुख, समझ रहे न? वह दोनों उनका दोस्त है। मन का कोई दोस्त नहीं है। वह सुख-दुख को लेकर ही जीता है, मरता है। दुखी हो जाता है तो सोचता है, मैं मर गया। सुखी होता है तो सोचता है, मैं बड़ा हो गया। यह लोग इस सुख दुख को, हम लोग हम लोग है न कलियुगी आदमी है, सुख-दुख को लेकर जी रहे, मर रहे हैं। हम लोग क्या लीला स्मरण करेंगे? क्या कीर्तन करेंगे? हृदय शुद्ध नहीं है ना इसलिए वह आए दो भाई, पवित्र करने के लिए हमारे हृदय को “चेतो-दर्पण-मार्जनं भव-महा-दावाग्नि-निर्वापण (शिक्षाष्टकम्)। “मार्जनं” नाम प्रभुजी को लेकर, साक्षात नामी और नाम, नामी दोनों आए लेकिन और एक ज़रूरत है। कौन ज़रूरत है? नामी साक्षात आए है, चैतन्य महाप्रभु आए और नाम प्रभु जी आए। सब शक्ति प्रभु जी ने नाम में अर्पित किए, फिर भी कलयुग आदमी नाम नहीं कर सकते हैं। क्यों? पात्रता नहीं है, पात्रता चाहिए। 


इतना विषय आसक्त हम जीव है न, बहुत कोई निष्ठा नहीं है, निष्ठा जो शब्द है न? वो सिर्फ नैश्चलय इसको बोलते हैं। निष्ठा, चक्रवर्तीपाद माधुर्य कादंबिनी में लिख रहे हैं नैश्चलय अवस्था, निश्चलता, विक्षेप नहीं है, लय नहीं। लय, विक्षेप, जो पाँच अनर्थ है न लय क्या है? विक्षेप क्या है? रस अस्वदय, “16:40”। यह जो चीज़ होता है न  सिर्फ मुक्त अवस्था, निष्ठा अवस्था,नैश्चलय अवस्था,यह अवस्था प्राप्त हो जाएंगे, तब लीला स्मरण, कुछ लीला चिंतन, लीला कीर्तन, कुछ होता है लेकिन हमारा अंतर विषय निष्ठा है। मैं सुन रहा था किसका पद? एक पद सुन रहा था, मै ग्राम सूकर जैसा हूँ। कबीर से, कबीर नहीं अलग कौन है? कबीर शायद, कबीर और किसका पद मैं कहाँ जा रहा था,भजन वो लगा रहे थे, मैं सुन रहा  था, अरे! इतनी सुंदर कथा। ग्राम सूकर देखे हैं? गांव का जो सूअर है। भागता है हर समय, कहाँ? कहाँ मल है? कहाँ मल है? ग्राम सूकर जैसा मेरा मन। इतना सुंदर लगा यह पद मुझे सुनकर। अरे! बाबा यह आचार्य लोग है न, कितना सुंदर, है तो दूसरा संप्रदाय में लेकिन एक पद लिखे हैं न, उनका भाव प्रकट किए हैं। हम लोग इसको पकड़ना है। ग्राम सूकर जैसा, न तो निष्ठा गुरु में है, न तो निष्ठा आचार्य में है, नाम में है, कुछ नहीं, विषय निष्ठा जीव। यह पात्रता जो है न यह पात्रता दान करने के लिए वो आए है गौर, नित्यानंद। लेकिन पात्रता जो हमारा नहीं है न उनको बनाने के लिए कितना कोशिश कर रहे हैं। 


हमारा जैसा भाषा है, समझ रहे न? जैसा दिमाग है, जैसा आचरण है, जैसे हम पकड़ सकते हैं, वो ऐसे ही 

… आचार्य लोग का यही महिमा होता है। आप बुरा मत मानिए कि मैं बार-बार आचार्य लोग के ऊपर क्यों stress(जोर) देता हूँ। उनका अवदान जब तक जीव का हृदय में नहीं बैठता है, भक्ति नहीं होता है। उन लोगों की कृपा से, परंपरा आचार्य लोगों की कृपा से ही हम जी रहे हैं। उनका अवदान बोलते हैं न, वो जो अभय सृष्टि जो है, वो जो दान है हम लोग के लिए। यह इस जगत का, इस जगत में, प्रभूपाद जी एक statement (वाक्य) लिखें है भागवत में “भक्त, भक्ति and(और) भगवान, they are not belongs to this material world(वह इस भौतिक जगत के नहीं है)”। तीनों इस जगत का नहीं है, हम इस जगत का है। शुद्ध भक्त और शुद्ध भक्ति और भगवान। हम लोग foreigner (विदेशी) है। 


महान्त-स्वभाव एइ तारिते पामर। 

निज कार्य नाहि तबु यान तार घर।।


अनुवाद -सभी साधु-संतों का सामान्य व्यवहार होता है कि वे पतितों का उद्धार करें। इसलिए वे लोगों के घर जाते हैं, हालाँकि उनका वहाँ कोई निजी काम नहीं होता।

 (चैतन्य चरितामृत मध्य लीला - 8.39)


उनका घर है, हम लोग का घर नहीं है। कहाँ आपका घर है? कानपुर है? मेरा घर ओडिशा है? कितना जन्म कुत्ते जैसे इधर-उधर भागते हैं हम। वो लोग आए हैं उधर। उनका वैशिष्ट्य क्या है? आचार्य लोग के माध्यम से हम जैसे चल सकते हैं, यही नित्यानंद प्रभु का वैशिष्ट्य है। स्थान, काल, पात्र। हम कैसे आदमी है? कलियुग के आदमी है, फिर कलियुग में हम five hundred years, पाँच सौ साल अतीत हो गया न अभी देखिए कितना, कौन सा principle(सिद्धांत) चाहिए? शास्त्र का essence(सार) क्या है? उसको लाकर देना है, ये आचार्य लोग का वैशिष्ट्य है। वैदिक नियम बोलना, आप  बोल सकते हैं, कर नहीं सकते। सब बोलते हैं न यह अच्छा है, यह करना चाहिए, करना चाहिए, भाई करना चाहिए, करो! आचार्य लोग को पता है, यह नित्यानंद कृपा आवेष्ट। हम लोग का पात्रता क्या है? निष्ठा नहीं हम लोग का, निष्ठा जब तक नहीं है न भजन नहीं होता है, भजन जो है, वह हल-चल चलता है। अनर्थ है न? तब तो निष्ठा नहीं है। निष्ठा से आपका platform(स्तर) steady platform(स्थिर स्तर) हो गया,नैश्चलय अवस्था आ गया। इसमें, प्रभूपाद जी अंग्रेजी में बोलते हैं “you are now a recognized devotees(आप अब एक प्रतिष्ठित भक्त है ), निष्ठा अवस्था, कभी नहीं छोड़ेगे। ठाकुर जी का हाथ कभी नहीं छोड़ेगे आप, गुरुजी का चरण कमल कभी नहीं आप छोड़ेगे, प्रभुजी का सेवा कभी नहीं छोड़ेगे, किसी भी परिस्थिति में। इस स्तर पर जाना चाहिए लेकिन पात्रता नहीं है, क्या करे? कोशिश कर रहे हैं, कुछ try(प्रयास) कर रहे हैं लेकिन पात्रता नहीं है, नहीं होता है। सबसे important(जरूरी)… आज मैं नित्यानंद प्रभु का कुछ लीला बोलूँगा क्योंकि मैं तत्त्व पर जा रहा हूँ, क्या बोलना है? 


एक बार नित्यानंद प्रभु जी, नित्यानंद प्रभु कहाँ रहते थे, आपको पता है? नहीं, नहीं जन्म था एकचक्रा में हुआ है। वह तीर्थ भ्रमण कर रहे थे और उनका बड़ा भाई जो थे न, कौन थे? महाप्रभु का बड़ा भाई कौन थे? विश्वरूप। कृष्ण, बलराम दोनों दो स्थान में आए थे। ये गौर अवतार का, जैसे द्वारका, sorry (क्षमा), वृंदावन, नंद महाराज, नंद भवन में प्रकट हुए कृष्ण और वसुदेव की, वसुदेव के प्रकट हुए न, दोनों स्थान में प्रकट हुए। तो कृष्ण, बलराम दो स्थान में आए, इधर नित्यानंद प्रभु जी का साथ बांका राय आए थे, बांका राय। अभी वो deities(विग्रह) है न, बांका राय। बांका राय। “बांका”, इसका मतलब क्या है? टेढ़ा है, “राय”, राधे, वो गौर। गौर नित्यानंद दोनों स्थान में आए। निताई उसका, गौर और उधर विश्वरूप और चैतन्य महाप्रभु और नित्यानंद प्रभु विश्वरूप में समा गए। विश्वरूप संन्यास लेकर आए। 

आप जाना चाहिए, कभी भी मायापुर जाते है न, नित्यानंद प्रभु के जन्म स्थान जाना चाहिए। वो हमारा आदि गुरु है ना, आदि गुरु। ये जन्मस्थान जाना चाहिए और वो क्या बोलते है? खेती, अभी तक वो खेती है, जहाँ समा गए थे। disappear(तिरोभाव) हो गए थे। कौन? बांका राय। और क्योंकि उस समय खेती बाड़ी काम चल रहा था, धान वगैराह बहुत होता था। तो कितना labour(मजदूर) लोग थे, सब काट रहे थे लेकिन वो आए, नहीं काट रहे थे, क्या बोलते हैं? Weeds (मातम), घास वगैराह है न, उसको निकाल रहे थे, हाँ, उसको उखाड़ रहे थे। तो विश्वरूप आए… बांका राय आए तो बोले  “क्या तुम इतना लोग हो, यही इतना काम किए हो?  तुम जाओ, जाओ तुम खाना खाकर आओ”, वो खाने के लिए गए हैं सब और बांका राय बिल्कुल बहुत बड़ा वो खेती था, कुछ minute (मिनट) में सब घास को पूरा साफ कर दिया और एक स्थान में पहाड़ जैसा। तब वो जब labour(मजदूर) लोग आए, वो सोचने लगे, हम कैसे काम करेंगे, ये  तो खत्म ही हो गया है काम। उनके पिताजी को information(जानकारी) दिए, हरई ओझा। देखो! देखो! तुम्हारा लड़का क्या किया? कितना अदभुत काम किया है। हम दस-बीस आदमी हैं, काम करना मुश्किल हो जाता है, वो अकेले कर लिया। तो गाँव का आदमी सब देखने के लिए आए, कितना बड़ा आश्चर्य का काम है। इतना छोटा लड़का है, ऐसे कैसे कर दिए? तो सब जो लोग, सब लोग आए। तो वो जो पहाड़ की जैसा घास वगैराह था न इसी में वो समा गए, disappear (तिरोभव)। तब सब रोने लगे, सब रोने लगे। तब आकाशवाणी हुई। इसमें यमुना है, शायद, छोटा नाला जैसा लगता है न? यमुना है। वो बोले हैं “चिंता मत करो, मेरा यह जो स्वरूप है, अभी दर्शन नहीं कर सकते हो आप”। इधर कदम खंडी है, ये घाट है, आप जायेगें न, जहाँ बांका राय का जो विग्रह appear(प्रकट) हुए, प्रकट हुए उधर है वो स्थान। वो प्राप्त हो गए और नित्यानंद प्रभु ने, गाँव का आदमी बोलते है और महापुरुष लोग बोलते है - “नित्यानंद प्रभु ने इसी में समा गए, प्रविष्ट हो गए”, बांका राय deities(विग्रह) में। अभी है बहुत सुंदर श्री विग्रह है। 


तो विश्वरूप, जब अकेला नित्यानंद प्रभु रहे, उधर disappear(तिरोभवित) हो गए, deity(विग्रह) हो गए, विग्रह हो गए, तब विश्वरूप इधर गए, विश्वरूप गए तीर्थ भ्रमण करते-करते। वो कौन है?  बलराम है। इधर बलराम है, दो बलराम हो जाएगा तो झगड़ा-पिटी हो जाएगा। एक बलराम होने वाले है। विश्वरूप गए तो हरई ओझा को बोलने मागे “तुम्हारा लड़का है, मैं तो अकेला संन्यासी हूँ, मुझे घूमना है, थोड़ा कपड़ा वगैराह लेना है, पानी लेना है, तुम्हारा लड़का कुछ दिन के लिए मुझे दे दो। उनके साथ मैं जाऊंगा, थोड़ा तीर्थ स्थान भ्रमण करके आऊँगा”। तो तब लेकर गए और south india(दक्षिण भारत) में पंढरपुर जो है, वो विश्वरूप नित्यानंद प्रभु का शरीर में प्रविष्ट हो गए। इसलिए सचि माता जब भी देखते थे नित्यानंद प्रभु जी को विश्वरूप का याद आता था। यह विश्वरूप जैसा लगता है मुझे और महाप्रभु ने, महाप्रभु सब पता है। 


सार्वभौम भट्टाचार्य जब बार-बार बोलते थे न… ये सब लीला है, आप सुनेंगे न, कितना मधुर लीला है, लेकिन क्या करें? बार-बार बोलते थे सार्वभौम भट्टाचार्य - “मेरा लड़का अगर मार जाएगा, वज्रपात, वज्रपात बोलते हैं न? thunderbolt(वज्रपात), वो अगर गिर जाएगा मस्तक में, मुझे इतना दुख नहीं होगा। महाप्रभु आप अगर छोड़कर मुझे चले गए”। यह निष्ठा है। 


यह भजन हम सुन रहे थे न “जे देशे निताई नाइ से देशे ना जाब”। तीर्थ क्या है? तीर्थ क्या है? क्या तीर्थ है? जहाँ गौर भक्त नहीं है, गुरु कृष्ण संबंध नहीं है, उधर नहीं जाना चाहिए।


“गौर आमार सब देश करिले भ्रमण रंगे । 

से सवस्थान हेरीबो आमी प्रणयी भकत संगे।।”


 ये important(आवश्यक) है। है तो गौरा तीर्थ, गौर का जो तीर्थ है पदांकित स्थान बोलते है। फिर हमको चाहिए प्रणयी भक्त, जो गौर भक्त, गौर भक्त की संघ में जाना है। यह निष्ठा है। भजन अकेला नहीं होता है भाई, हम बोल सकते हैं, पढ़ सकते हैं, बुद्धि है लेकिन ये एक आनुगत्य परंपरा है। अकेला जीने का पथ नहीं है, अकेले जी  नहीं सकते हैं हम, रस नहीं मिलता है, जीवन नहीं मिलता है, गुरु कृष्ण के सिवाए जीवन नहीं मिलता है, निर्जीव जैसा है। लोग बोलेंगे हम बड़ा साधु है, लोग हमको सम्मान देंगे, पैसा देंगे, position (पद) दे देंगे लेकिन हमारा जीवन नहीं है। यह निष्ठा जो होता है ना, गुरु, परंपरानिष्ठ, आचार्यनिष्ठ, इष्ट गौर नित्यानंद निष्ठ,नामनिष्ठ। यह प्रकट किये है न आचार्य लोग।


“जे देशे निताई नाइ से देशे ना जाब। 

निताई विमुख जनार मुख ना देखिब।।”


जो गुरु कृष्ण से संबंधित नहीं है, उनसे मेरा संबंध नहीं है। ये निष्ठा है और सार्वभौम भट्टाचार्य यही बार-बार बोल रहे थे  “मैं मर जाऊँगा”। महाप्रभु ने सोचा मुझे जाना है south india(दक्षिण भारत), उधर तत्ववादी है, पंडित लोग है न। 


भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर कहा करते थे - “मैं गया हूँ, बहुत तीर्थ गया हूँ”। क्या बोले हम उनका जो statement(वाक्य) है न, सिंह गुरु है न वो बोल रहे थे। “मैं जीवन भर travelling(तीर्थ) किया हूँ, भ्रमण किया हूँ लेकिन मुझे आज तक एक आदमी नहीं मिला, ऐसे, आज तक एक आदमी नहीं मिला जो गुरु कृष्ण की बात बोलते हैं”। “वो लोग क्या कर सकते हैं?”, वो बोलते हैं। “आदमी का कितना रोग है, वो जो platform speaker(प्लेटफॉर्म स्पीकर), वे ऐसे बोलते थे। “जो platform speaker(प्लेटफॉर्म स्पीकर) है, वो लोग उनका क्या भलाई कर सकते हैं? मैं एक आदमी को नहीं देखा हूँ, जो बोल रहे हैं, किसके लिए? गुरु कृष्ण के लिए, सब लोग बोलते हैं दूसरे की मन को रखने के लिए, ये मुझे पसंद करें”, उनका statement (वाक्य) ऐसे है। वो गए south india(दक्षिण भारत) जब गए ना, तब बोले महाप्रभु का उदेश्य यही था, ये इधर तत्ववादी है, ज्ञानी लोग है। भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभूपाद जी कहा करते थे  “मैं गया हूँ south india(दक्षिण भारत) लेकिन बंगाली जैसा भावुक और रसिक उधर नहीं है। 


लेकिन सब आचार्य लोग कहाँ आए है? 

उत्पन्ना द्रविड़े साहं वृद्धिं कर्नाटकम गतः, 

भक्ति…बोल रहे है न, हमारा आचार्य लोग तो south indian(दक्षिण भारतीय) है लेकिन रस कहाँ है? गौर भूमि में। गौर, गौर पता होना चाहिए, नित्यानंद प्रभु को पता होना चाहिए। भगवान के पास जाने के लिए shortcut(छोटा रास्ता) वही है। समझ रहे है न आप? भाई थोड़ा भजन में आप पार हो जाएँगे और बहुत भजन करेंगे अटक जाएँगे। हमको थोड़ा में पार होना चाहिए इसलिए गौर नित्यानंद आए। थोड़ा बहुत कुछ करो, पार हो जाओ। क्या बोलते हैं उसको? Grace mark(ग्रैस मार्क) हम teacher(शिक्षक) के पास है थे ना, grace mark(ग्रैस मार्क), हमको grace mark (ग्रैस मार्क) चाहिए, हम भाई qualified person  (योग्य व्यक्ति) नहीं है। खुल्लम-खुल्ला हम बोल देते है। हम qualified person(योग्य व्यक्ति) नहीं है। हमारा तो कुछ नहीं है। Teacher(शिक्षक) का कपड़ा-वपड़ा साफ करते है ना? हम hostel(हॉस्टल) में रहते थे। आप लोग पता नहीं teacher(शिक्षक) के पास कैसे रहते हैं। cycle(साइकिल) वगैराह साफ सुधरा करते हैं, कपड़ा साफ कर देते हैं, जो बोलते है, वह कर लेते हैं न तो खुश हो जाता है, तो paper(पेपर) उनका हाथ में जब पड़ता है ना, वो चढ़ा देते है grace mark(ग्रैस मार्क)। हम लोग ऐसे काम करते है न, आचार्य लोग का पास कुत्ता जैसा पड़कर रहना, उनका बात बोलना, grace mark(ग्रैस मार्क) हमको चाहिए नहीं तो पास नहीं होंगे हम। Grace mark(ग्रैस मार्क) क्या पता है आपको? एक चीज़ है, थोड़ा उसको, इसका ऊपर ध्यान दे दीजिए न


गौरांगेर संगिगणे, नित्यसिद्ध करि’ माने, से याय व्रजेन्द्रसुत पाश।

 गृहे वा वनेते थाके, ‘हा गौराङ्ग!’ ब’ले डाके, नरोत्तम मागे ता ‘र सङ्ग।।

(सावरण-गौरमहिमा,प्रार्थना)। 


देख लीजिए पद। Shortcut way(शॉर्टकट वे)। हर समय बुद्धि में एक चीज़ रखना चाहिए, जो गौरांग महाप्रभु का पार्षद है, वह नित्य सिद्ध है। यह shortcut way(शॉर्टकट वे)।”गौरांगेर संगिगणे, नित्यसिद्ध करि’ माने, से याय व्रजेन्द्रसुत पाश।” जाना है आपको राधा कृष्ण, राधा कृष्ण के पास गोलोक वृंदावन? ये shortcut way(छोटा रास्ता) है। 


हमारा मन नहीं मानता है। मैं बड़ा, ये बड़ापन हमको इतना ग्रस्त कर दिए है न, निगल गए है, ये निगल लिए हमको। हम आत्मीयतापूर्वक गुरु और कृष्ण को हृदय में बैठा नहीं सकते हैं। समझ रहे न आप? मेरा हिंदी इतना शुद्ध नहीं है,आप लोग समझ लीजिए। आत्मीयतापूर्वक, समझ रहे है न? जैसा लड़का, यह शरीर, धन, सम्मान जैसे बैठ जाता है, गुरु कृष्ण ऐसे नहीं बैठते, आचार्य लोग ऐसे नहीं बैठते हमारे हृदय में। बैठाने के लिए हमारे पास ताकत नहीं है, यही problem(प्रॉब्लेम) है। गौरांगेर संगिगणे, नित्यसिद्ध करि’ माने, वो नित्य सिद्ध है। यह judgement(अनुमान), logic(बुद्धि), arguments(तर्क) शास्त्र में नहीं लगेगा, be careful (सावधान रहिए)। 


भाई आपको शास्त्र मानना है, आप मान लीजिए, हम तो शास्त्र मानने वाले नहीं है, हम तो मानना है परंपरा आचार्य लोग को। इसका मतलब नहीं हम शास्त्र नहीं मानते हो क्योंकि परंपरा आचार्य लोग शास्त्र का essence(सार) देते हैं। आपको क्या लाना है? फूल का रस लाना है, चलो गुलाब, गुलाब बोलते हैं न? इसमें रस है कि नहीं? आप ला सकते हैं? नहीं ला सकते। Bumble bee(भंवरा) क्या मधुकर बोलते हैं न? मधुकर collect(इकट्ठा) करके रखें है तो आप खा लीजिए, तो आप पागल क्यों होते हैं? यह गुलाब है, इसमें यह रस है, भाई तुम नहीं निकाल सकते हो। भागवत में क्या है? गीता में क्या है? चैतन्य चरितामृत में? हमको, क्या रस हम निकालेंगे?आचार्य लोग मंथन करके सब दे दिए, तुम इसको digest(पाचन) करो और कैसे digest(पाचन) होगा? Indigestion(अपच) इसीलिए होता है, उनका position(स्थान) हमको पता नहीं है,Indigestion(अपच) इसीलिए होता है। गौरांगेर संगिगणे, नित्यसिद्ध करि’ माने, यह नित्य सिद्ध है, नित्य सिद्ध है। से याय व्रजेन्द्रसुत, ये shortcut way(छोटा रास्ता) है। ये essence(सार) है। इसे नहीं पता चलेगा तो क्या करेंगे आप? Intellectual(बौद्धिक), Intellectual(बौद्धिक), क्या बोलते हैं Intellectually(बौद्धिमता)? हिंदी में क्या बोलते हैं इसको? बुद्धिमता से कितना भी कोशिश करें, पहुँच नहीं सकते हैं। भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर कहा करते “यह fourth(चौथी) और fifth(पांचवीं) dimension (आयाम) की बात है”। इधर तो three dimension(तीन आयाम) है। बुद्धि में पकड़ में नहीं आता है। हम किसका बुद्धि पर चलते हैं? हम जब हमारा बुद्धि पर चलते हैं तो यह कृपा नहीं मिलता है। हमको क्या करना चाहिए? गुरु की, आचार्य लोग की बुद्धि पर चलना चाहिए, उन लोग की बुद्धि पर। यह सबसे सुरक्षित जीवन है। यही नित्यानंद प्रभु की कृपा है। ठाकुर जी जिसको कृपा कर देते है ना, उनका मन बैठ जाता है, आचार्य को उपर, नित्यानंद प्रभु कृपा का यही लक्षण है। आचार्यनिष्ठ हो जाता है और जब तक नित्यानंद प्रभु नहीं कृपा करते हैं ना, उन पागल सा घूमता है इधर-उधर इधर-उधर घूमता है। 


भाई,शास्त्र क्या है? शास्त्र यही है आचार्य, आचार्य जो बोले, यही शास्त्र है। बुद्धिमता से काम नहीं चलता है। आप बुद्धिमान हो, बहुत श्लोक पता है, बहुत तत्त्व पता है, तत्त्व क्या है? तत्त्व, तत्त्व वस्तु कृष्ण है। समझ रहे हैं आप? येइ कृष्ण-तत्त्व-वेत्ता, सेइ 'गुरु'हेय, तत्त्व-वेत्ता मतलब आप तत्त्व-वेत्ता हो गए, आप गुरु हो गए? कोई संस्कृत college(विश्वविद्यालय), संस्कृत school (विद्यालय) में जाएगा वृंदावन में है न। आप जीव गोस्वामी के संदर्भ पढ़ लीजिए, भागवत पढ़ लीजिए, क्या आप तत्त्व-वेत्ता हो गए? तत्त्व-वस्तु जो है न, उसको दर्शन करना है और तत्व वस्तु जिसका माध्यम में आए है न, किसका माध्यम में? इस जगत पे अवतरण किये है, परंपरा माध्यम में, ये आचार्य लोग को स्वरूप दर्शन करना, तब आप प्राप्ति…। स्वरूप दर्शन करते हैं, गुरु का स्वरूप क्या है? यह स्वरूप दर्शन हो गया, तो हो गया भगवत दर्शन। 


तो पहले क्या करना चाहिए? first step(प्रथम पद) — गौरांगेर संगिगणे, नित्यसिद्ध करि’ माने, ये नित्य सिद्ध है, इसको मानना चाहिए। तो मैं यही बोल रहा था कि रसिक होते हैं। 


south indian(दक्षिण भारत) आचार्य, south india (दक्षिण भारत) में आचार्य लोग आए है, सिद्धांत है, बहुत सदाचार, अभी तक ब्राह्मण लोग का बहुत सदाचार है, तत्त्ववादी, माध्वाचार्य जैसे बहुत बड़े-बड़े आचार्य लोग आए है। भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने क्या बोले  “बंगाली लोग बहुत रसिक होते है”। अभी तक भी देखिए बंगाली लोग जहाँ भजन करते हैं न, उनका गान अलग है। यह स्थान का प्रधान है, स्थानं प्राधनं न बलं प्रधानं, ऐसे जन्मभूमि, महाप्रभु गौर पदांकित स्थान है। श्रीगौड़मण्डल-भूमि, येबा जाने चिन्तामणि, ता'र हय ब्रजभूमे वास (सावरण-गौरमहिमा,प्रार्थना), ब्रज में रहने का अधिकार आप किसका भी नहीं है। जिसको गौरांग महाप्रभु का philosophy(सिद्धांत) पता नहीं और गौर भक्त आश्रित नहीं है। वह बाहेर तो ब्रज वास करता है लेकिन ब्रज का भाव नहीं, भाव नहीं पकड़ सकता है। कौन ब्रज भूमि को प्रकट किए? गौर, राधे। वही राधा भाव। मैं यही बोल रहा था कि नित्यानंद प्रभु समा गया, कहाँ? पंढ़रपुर में, sorry(क्षमा), विश्वरूप। तो महाप्रभु बोले रहे सार्वभौम भट्टाचार्य को “मेरा बड़ा भाई खो गए है न, मुझे जाना है”। महाप्रभु किसी को दुख नहीं देते थे, ऐसे भगवान है, किसी को दुख नहीं देते थे। बहुत बोलते है न, time(समय), place(स्थान), circumstance (परिस्थिति) के हिसाब से बहुत pleasing way (प्रतिपूर्ण तरीका), प्रतिपूर्ण व्यवहार। महाप्रभु का दो अस्त्र थे, प्रीतिपूर्ण व्यवहार, युक्तियुक्त कथा। महाप्रभु कभी compromise(समझौता) नहीं किये है लेकिन dealing(व्यवहार), स्वीट dealings(मीठा व्यवहार) में without compromise(बिना समझौते के)। यह दो चीज़ एक साथ, एक साथ में नहीं होता है। समझ रहे हैं न? आप स्वीट dealings(मीठा व्यवहार) करेंगे, compromise(समझौता) भी नहीं करेंगे। ये जब भी compromise(समझौता) नहीं करते है ना, थोड़ा hard nature(हार्ड नेचर) हो जाता है। मुझे compromise(समझौता) नहीं करना है लेकिन महाप्रभु का यह वैशिष्ट्य है, आचार्य लोग का यह वैशिष्ट्य है। जो कृपासक्त है महाप्रभु जी, यह वैशिष्ट्य है। महाप्रभु सार्वभौम भट्टाचार्य को बोले और गए। महाप्रभु को पता चला, जब पंढ़रपुर गए तो पता चला कि इधर बड़ा भाई है। उनको पता है वो तो भगवान है। तब आए नित्यानंद। नित्यानंद प्रभु तीर्थ भ्रमण किये, वो देख, महाप्रभु को साक्षात् नहीं हुआ,नित्यानंद प्रभु वृंदावन में रहते थे। वो आत्मप्रकाश नहीं देखे, गौर के बिना आत्मप्रकाश नहीं करते। महाप्रभु कब आत्मप्रकाश किया? आत्मप्रकाश समझ रहे है न? महाप्रभु को बोलते है निमाई पंडित, पंडित का नाम था। महाप्रभु को ये बहुत कष्ट लग रहा था,अरे राधारानी है। पंडित क्या बोल रहे है? ब्रह्मा जी की कृपा से कोई पंडित हो सकता है, शिवजी की कृपा से कोई पंडित हो सकता है। क्या है? निमाई पंडित, निमाई पंडित लोग बोलते थे। संस्कृत tool(वर्णमाला) पढ़ाते थे न, expert (विशेषज्ञ), दिग्विजय पंडित को भी परास्त कर दिया, सब कर दिए लेकिन जब गए गया और ईश्वरपुरी से साक्षात हुआ, हुआ न? तब से आत्मप्रकाश। हम लोग के लिए यही शिक्षा है। जब तक गुरु की कृपा नहीं मिलता, गुरु स्वीकार नहीं करते, तो स्वरूप अवस्था हम प्राप्त नहीं, स्वरूप अवस्था जो वो नहीं मिलता है हमको। हमको पता है  जीवेर स्वरूपे होय, हमको पता है, सबको पता है, पहले जो आ जाते हैं, उसको पता है। है तो कृष्ण का दास लेकिन काम कर रहे हैं माया का, माया का दास बन चुके हैं हम। इस स्वरूप अवस्था जब प्रकट होता है न, गुरु की कृपा से। महाप्रभु हम लोग को यह शिक्षा दे रहे हैं। जब आए न, तब प्रेम प्रकाश। नित्यानंद प्रभु को पता चला, अभी मेरा प्रभु जी आत्मप्रकाश किये है, तब वे आने लगे, वृंदावन में था। वह भी कोई भाव प्रकट नहीं करते थे। 


ये छन्न अवतार है। तब आए नित्यानंद प्रभु। तब बहुत बड़ा लीला है, कैसे साक्षात किये लेकिन मैं यही निष्ठा पर बोल रहा था कि नित्यानंद प्रभु जब आते थे ना, वो श्रीवास पंडित के घर में रहते थे। क्यों? है तो संन्यासी, ऊट-पटाँग काम, प्रेमे मत्त नित्यानन्द, प्रेम में पागल, प्रेम में पागल। सब नहीं समझ सकते, आश्रम कौन सा? संन्यास। समझ रहे न? लेकिन कभी-कभी लोहा का डंडा पकड़ते, लोहा का डंडा कौन पकड़, कौन पकड़ते हैं? मायावादी लोग, शिवजी का जो follower (अनुयायि) है, लोहा का डंडा पकड़ते हैं न, त्रिशूल पकड़ते हैं और संन्यासी वह कभी सोना, यह सब चीज़ नहीं पहनना चाहिए। वो पहन लेते थे और कभी-कभी नंगा भी हो जाते थे। यह तन पर बिल्कुल कपड़ा-वपड़ा कुछ नहीं है, कपड़ा, कपड़ा, पागल हो जाते थे न,जैसा शिवजी जैसा है। समझ रहे न यह? यह दिमाग वाले का काम नहीं, मैं बोल रहा था कल जैसा ये अंधा का पथ है, ये पागल लोग का पथ है। लोग बोलते है ना, यह मेरा लड़का पागल हो गया है इस्कॉन में, भाई ठीक है। आप जो सोचते है ये सही है लेकिन हमारा गलती है कि हम पागल नहीं हो रहे है। यह पागल लोग का काम है, प्रेम में पागल है। दुनिया में कौन पागल नहीं है? सब पागल है न। वह पागल नहीं है क्या? दिन-रात गधा जैसा काम करता है, इसका परिणाम क्या है? उनको पता नहीं है। वो पागल नहीं है? हम पागल है, उनसे better standard (अच्छी श्रेणी) है। हम तो ठाकुर के लिए पागल है, पागल तो अब तक नहीं हुए लेकिन पागल हमको बनना है और नित्यानंद प्रभु जी जिसको कृपा कर देते है न, वो पागल हो जाता है। अभी जो सोच रहे है न, मेरा मन में,आर क’बे निताईचाँदेर करुणा हइबे(लालसामई,प्रार्थना) संसार छोड़ दिए है लेकिन वासना नहीं छोड़े। संसार छोड़ देते है लेकिन वासना नहीं छोड़ सकते और संसार, जो घुस गए है संसार में, जो संसारी है, गृहस्थ लोग है, संसार में है लेकिन संसार वासना नहीं जा रहा है, वासना तो सबको पकड़ कर रखें है। वासना, समझ रहे हिंदी में? नहीं नहीं वासना, lust(काम), हर समय यह बड़ा काम नहीं है,lust(काम) क्या है? कोई,ये desires(वासना), subtle desires (सूक्ष्म वासना), not gross desires(स्थूल इच्छा नहीं)। सूक्ष्म जो मन में अभिलाष रहता है। हमारा वासना अलग, मोर एइ अभिलाष, विलासकुंजे दिओ वास(श्री तुलसी कीर्तन), ये वासना मन में आता है? सुख नहीं, दुख नहीं मुझे विलास कुंज ले जाए, मैं राधा-कृष्ण का दर्शन करूँगा, दासी बनूँगा, मैं दासी बनूँगी, मुझे ले जाइए। यह हमारा अभिलाष, इसको वासना बोलते हैं, यह शुभ वासना है। यह वासना की बात आ गया न? फिर दिमाग उधर चला गया। वासना क्यों नहीं होता है? पता है न आपको? यह वासना, हमारा वासना यही होना चाहिए विलासकुंजे दिओ वास। ये अशुभ वासना क्यों आता है? भोगने के लिए ये संसार को? जो भोगने वाले हैं उनका मन में वासना रहता है, जो नहीं भोगे उसका मन में वासना रहता है। हमको क्या चाहिए? वासना क्यों ऐसा आता है? पता नहीं? श्रीधर स्वामी ने लिखे है, चक्रवर्तीपाद ने लिखे है, प्रह्लाद महाराज की चरित्र में। वासना, शुभ वासना उदित होते हैं, जब साधु, गुरुदेव कृपा करते हैं। महत की कृपा से। महत कृपा से शुभ वासना उदित होते हैं और महत कोपाथ, महत रूठ गए है। अरे,ये ठाकुर जी है, प्रभूपाद जी के घर, आचार्य लोग के घर है ये। वो अगर रूठ जाएँगे, हमारा कार्यकलाप जो है, हमारा सेवा, समर्पण, हमारा भाव से वो प्रसन्न नहीं होंगे तो अशुभ वासना आता है, अशुभ वासना आता है। We are responsible, हम इसके लिए उत्तरदायी। किस को दोष नहीं देना है। ये वासना, ये तो मन की बात है। शुभ वासना उदित होता है, जब साधु-गुरु कृपा करते, महत कृपा और महत कोपाथ, महत अगर कोप गए। कोप समझ रहे है न आप? कोप? प्रसन्न नहीं हुए तो, यह अशुभ वासना उदित होता है, यही हम कर रहे। यह पीछे-पीछे, वासना पीछे-पीछे लगे रहते है। यह कैसे जाएगा?

 आर क’बे निताईचाँदेर करुणा हइबे। संसार-वासना मोर कबे तुच्छ हबे।।

विषय छाड़िया कबे शुद्ध हबे…

(लालसामई,प्रार्थना)। 


बाहरी रूप से हम विषय को छोड़ दिए हैं, विषय हमको पकड़ा है या हम विषय को पकड़े है? लेकिन मन में वो बैठ गया है अभी तक, वो कृपा के बिना नहीं जाता है। कृपा की स्वरूप यही है। कृपा की जो स्वरूप है, यही है। हमारा सामर्थ्य में कुछ काम नहीं होने वाला है, हमारा सामर्थ्य इतना ही है; खुद नहा लो, जैसे हम नहा लेते हैं, साफ सुथरा कर लेते हैं, खाना-पीना देने वाले कौन है? माँ जी दे देते। जब तक हम नहीं नहाते हैं न, तो माँ क्या बोलते हैं? नहा कर आओ, नहा कर आओ, बोलते है न? साफ सुथरा हो, bathroom(बाथरूम) जाओ, कपड़ा साफ करो, तब तो खाना मिलेगा। हमारा ऐसा काम है। हमारा जो साधन, भजन का फ़ल, फिर इसको करने के लिए भी गुरु कृष्ण का, गुरु जी के अनुगत्य में, परंपरा आचार्यों के अनुगत्य में साफ सुथरा होना है। हमारा साधन का इतना तक बल, सीमा है। समझ रहे न आप? आप कितना fix round(निर्देशित जप), क्या बोलते हैं? स्थिर मन में strictly(सख्ती से) आप साधन करेंगे तो आप, आपका भीतर में जो अशुभ वासना है, अनर्थ है। अशुभ वासना, जो अनर्थ है, उसको साफ सुथरा कर सकते हैं। यह भी फिर कृपा चाहिए। इतना तक स्तर है हम लोग का लेकिन सूक्ष्म जो वासना रहता है न, वह नहीं जाता है, जब तक कृपा नहीं मिलता। कृपा जब मिल जाता है न, subtle desires (सूक्ष्म वासना) जो है, दूसरा वासना, यह वासना उदित होता है। कृपा का स्वरूप क्या है? यह वासना उदित। क्या आप सोच रहे है? योगी लोग का वासना, संसार भोगने का वासना है? नहीं है। लेकिन भगवान, भगवत प्राप्ति के लिए भी वासना नहीं है। समझ रहे है न, वो लोग सिद्धि के लिए वासना रखते है, संसार का वासना उनका नहीं है, इसका मतलब नहीं कि भगवत प्राप्ति उनका वासना है लेकिन हमारा वासना यह होना चाहिए, क्या? 

“मोर एइ अभिलाष। दीन कृष्णदासे कय”

कितना सुंदर है “एइ येन मोर है। श्रीराधा-गोविंद-प्रेमे सदा येन भासि।।” प्रेम में,मैं डुबकी लगाऊँ। ये अभिलाष,ये नहीं होता है। नित्यानंद प्रभु जी की जब कृपा नहीं होता है, वो तो प्रेम मत्त पागल है। 


एक बार श्रीवास पंडित के घर में रहते थे क्योंकि श्रीवस पंडित को पता है “यह प्रेम में पागल है, मैं control (काबू) कर सकता हूँ”। दूसरे लोग तो उनको दर्शन करेंगे तो अपराध करेंगे। उनका जो आचरण है, उट-पटांग है। खासकर के दो बार इस प्रसंग आए चैतन्य भागवत में, महाप्रभु और विष्णुप्रिया खुद बैठे थे। समझ रहे हैं न? bedroom(शयनकक्ष) में,शयन कक्ष और नित्यानंद आ गए। कैसे आ गए? कपड़ा बिल्कुल नहीं। महाप्रभु बोल रहे है “नित्यानंद कपड़ा कहाँ है?”। महाप्रभु को एक बात बोल रहे हैं और नित्यानंद प्रभु बोल रहे है  “हाँ हाँ हाँ” महाप्रभु जो बोल रहे हैं न,उनको कुछ सुनाई नहीं देता है। महाप्रभु एक बात बोल रहे हैं, वह अलग बात बोल रहे हैं। यह प्रसंग आ रहा है, चैतन्य भगवत में बहुत बड़ा प्रसंग है। पढ़ लीजिए कभी। महाप्रभु बोल रहे है“नित्यानंद, यह वस्त्र पहनना चाहिए न, यह गृहस्थ का घर है, ये थोड़ा संन्यास आश्रम है”। ये बाबाजी लोग कभी-कभी कॉपिन पहन लेते है, वृंदावन में देख लीजिए न,वह खुल्लम-खुल्ला कॉपिन पहन लेते हैं। यह संन्यास आश्रम अलग है, यह गृहस्थ का बाड़ी है। महाप्रभु ने, बोल रहे थे और विष्णुप्रिया इधर है और वह हँस रहे थे नित्यानंद प्रभु। महाप्रभु समझ लिए, ये अभी बिल्कुल प्रेम में पागल है। अंतर्दशा इसको बोलते हैं। हम हर समय बहिर दशा में है। बहिर दशा समझ रहे हैं न? भक्ति तो करते हैं लेकिन बाहर का चीज़ बिल्कुल, हम इसमें घुस गए, हमारा दिमाग इसमें घुस गया। अंतर्दशा क्या होता है? भगवत संबंध, सब चीज़ भगवत संबंध है। आचार्य लोग का यही दशा है। वह park (बाग) में जाते हैं। समझ रहे हैं न? कहाँ भी जाते है ना, कृष्ण को दर्शन करते। 

“जहां नेत्र पड़े तहां देखे अमार।”             

(मध्य-लीला 25.127 चैतन्य चरितामृत) 

ये आचार्य लोग की,देख लीजिए प्रभूपाद जब  Morning walk (भोर भ्रमण) में जाते है, कुछ भी देख लेते तो कृष्ण से जोड़ लेते, कुछ भी। हम जाते है न, “कितना सुंदर seabeach (सीबीच) है ए आओ         photo(फोटो) खिचो photo(फोटो) खिचो, photo(फोटो) खिचो” यही हमारा है आचार्य, कृष्ण संबंध। महाप्रभु को पता चला कि नित्यानंद अभी प्रेम के व्यवस्था में है। महाप्रभु खुद वस्त्र लाए, खुद का वस्त्र लाए और नित्यानंद प्रभु को पहना दिए और वो हँस रहे थे और दूसरा एक बार ऐसे ही हालत हुआ। भक्त लोग सब थे, मालिनी थे श्रीवास पंडित के घर में, ऐसे ही, कपड़ा कुछ नहीं। ये कौनसा लीला है। क्या हमको सिखा रहे है ठाकुर जी? क्या सिखा रहे है? अे शरीर को, शरीर स्मृति को, शरीर और शरीर का जो भावना इसको त्याग करना है, यह प्रेम का धर्म है और नित्यानंद प्रभु की कृपा से मिलता है। 


जिसका स्वरूप, आज सुबह प्रभु जी गा रहे थे मुझे बहुत याद आ रहा था “हा हा प्रभु नित्यानंद! प्रेमानंद सुखी(पुनः प्रार्थना,प्रार्थना)” यह पद मुझे बहुत घुस गया मेरा दिमाग में, कितना सुंदर पद है। हम तो गाते थे कभी-कभी भीतर नहीं जाता है। भाई उनका स्वरूप धर्म क्या है? “प्रेमानंद सुखी” हमारा सुख क्या है?  विषयानंद सुखी, मेरा याद यही विषय में आया। देखो वो प्रेमानंद सुखी है। वो अगर कृपा कर देंगेतो हम प्रेमानन्द प्राप्त है, यही प्रेमानन्द स्थिति पर थे और इतना सुंदर भाव था; कपड़ा नहीं था तो सब भक्त, महाप्रभु जब देखने लगे न, महाप्रभु यह ब्रज लीला, के बृज लीला में वह क्या थे?  बलराम थे न। बलराम तो मर्यादा, मरेगा। strict(सख्त स्वभाव) लेकिन वो सोच रहे थे कि देखो वह भी भावुक बन गए। वह भी। गौर लीला का ऐसा प्राधान्य है। प्रेमिक, हमको प्रेम देने के लिए, हम कामी जीव को प्रेम देने के लिए आए है, यह कितना बड़ा अवदान है। क्यों गौर बड़ा है? हमको ज्ञानी बनाने के लिए नहीं आए, पंडित बनाने के लिए नहीं आए, शास्त्रविध बनाने के लिए नहीं आए, ये कामी जीव को प्रेम देने के लिए आए। ये पद देखिए क्या है? उसका बाद, 

हा हा प्रभु नित्यानंद! प्रेमानंद सुखी। 

कृपावलोकन कर, हर पद में वही कृपा, आमि बड़ दुःखी।।(पुनः प्रार्थना,प्रार्थना), 


मेरा स्वरूप धर्म है  मैं दुखी हूँ। आपका स्वरूप धर्म क्या है? महाप्रभु को पता चला कि यह बाबा, अभी तो पूरा transcendental platform(दिव्य स्थिति) में है, दिव्य स्थिति में है। महाप्रभु वस्त्र पहनाएँ और नित्यानंद प्रभु का कोपिन लाए और भक्त लोग को बोले, ये नित्यानंद प्रभु का जो कोपिन है न, उसको फाड़ दीजिए, टुकड़ा-टुकड़ा बना दीजिए और सब भक्त लोग इसको मस्तक में धारण कीजिए, जैसा हम तुलसी माला धारण करते हैं न,पहनते है, पहन लीजिए, तुम्हारा भक्ति होगा, मैं बोलता हूँ तुम्हारा भक्ति होगा। 


समझ रहे हैं न तत्त्व क्या है? यह चिन्मय है, शरीर में जो स्पर्श, एक पद है चैतन्य भगवत में नित्यानंद प्रभु का शरीर का हवा, पवन जहाँ लगता है न, वो प्रेमिक बन जाता है। है ना, वो empowered(सशक्त) आचार्य होते है, शुद्ध भक्त होते है न उनका पास में बैठने से, भक्तिविनोद ठाकुर लिखे है न,हरिनाम चिंतामणी में  यह भाव transfer(स्थानांतरित) हो जाता है, पास में बैठते है न, शरीर कांपने लगता है। यह अलग स्थिति में है न चिंतन लीला में, भगवत लीला में है, लीला आवेश में, भगवत चिंतन में है। Spiritual influence          (आध्यात्मिक प्रभाव) है न, वो transfer(स्थानांतरित) हो जाता है। नित्यानंद प्रभु हर समय रहते थे कहाँ? श्रीवास पंडित के घर में और ऊंट-पटांग प्रेम में, अशोक प्रेम में। तो एक बार महप्रभु ने उनको परीक्षा किए  “श्रीवास तुमको पता है?, नित्यानंद को रखने से पहले उन पूछना चाहिए, उनका जाति क्या है?....”।  


हमारी जाति क्या है? “निताई मोर जीवनधन निताई मोर जाति।” बस। हमारा जीवन है, हमारा धन है, ये गुरु, आचार्य, नित्यानंद, हमारा जाति भी यही है, हम नित्यानंद का है। जाति समझ रहे हैं न? हम ना तो ब्राह्मण है, ना तो क्षत्रिय, हम किसका नहीं, हम गुरु का है यह हमारा जाती है, हम नित्यानंद का है।


“निताई मोर जीवनधन निताई मोर जाति। 

निताई विहिने मोर आन नाहि गति ।।”


देख लीजिए, कैसा पद है  “मेरा गति नहीं है।” इधर लिखे है न “निताई नाहि मोर गति” उधर क्या लिखे है? विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर अंतिम पद में  


यस्याऽप्रसादन्न् न गति कुतोऽपि।

(श्रीगुरुदेवाष्टकम्,स्तवामृत लहरी),

भाव समान है, कृपा की सिवा हमारा गति नहीं है। कृपा। अभी चल, जितनी दिन तक हम जी रहे न भक्ति योग में? किसकी बल पर? कृपा की बल पर। अभी चल रहे हैं, किसकी बल पर? कृपा की बल और भविष्य में आशा क्या है? वही कृपा। पथ ही कृपा की पथ है, बस। ये conclusion(सार) है। जितना दिन तक हम जिए है न गुरु, प्रभुपाद जी अब खुश हैं, उनका कृपा है तो जी रहे हैं और आज भी चल रहा है हमारा गाड़ी; जो भजन १६ माला कर रहे हैं, जो कुछ सेवा कर रहे हैं, उनकी कृपा से और आशा क्या है? वही कृपा। न तो संन्यासी बनना, तो बड़ा preacher(प्रचारक) बनना, ठीक है! भाई जो भी बनना है, तुम बन जाओ लेकिन लक्ष्य यही है, कृपा। कृपा की बिना सब... और नित्यानंद प्रभु परीक्षा, महाप्रभु परीक्षा कर रहे है “श्रीवास, उनका जाति तुम पूछे हो? नित्यानंद कौन है?, उनका आचरण से पता चलता है, ये तो ब्राह्मण नहीं है, ये वर्णनांतर है शायद, क्षत्रिय भी नहीं है....”, परीक्षा कर रहे है। “....पूछे तुम? तुम उनको क्यों रखे हो? निकाल दो घर से, घर से निकाल दो”। समझ रहे हैं न? हम क्या करते हैं, भीतर है तो बाहर निकालेंगे, समझ रहे न? गुरु कृष्ण भीतर नहीं है, अभी तक दीक्षा ले लिए हैं, पूजा-अर्चना चल रहा है, भीतर तो नहीं है, निकालेंगे क्या हम? बैठते नहीं भीतर, मन में थोड़ा बैठ जाते हैं कभी-कभी फिर निकालेंगे, हम क्या? हमारा शक्ति क्या है? हमको, ठाकुर जी हमको परीक्षा नहीं करते हैं? कुछ नहीं। भीतर कुछ नहीं, सब बाहर का चल रहा है। समझ रहे ना? तिलक बाहर का हो रहा है, नाम जप, सब बाहर का है। ये बाहर का जो चीज़ है न वैष्णव लोग दिए हैं ना? यह परंपरा की शिक्षा, भीतर को बनाने के लिए। समझ रहे ना आप? Externally what we performing to develop eternal mood (बाह्य रूप से हम शाश्वत मनोदशा विकसित करने के लिए क्या कर रहे हैं)। समझ रहे न आप? जो बाहर से हम कर रहे है? जैसे preaching(प्रचार) कर रहे है, कीर्तन कर रहे हैं, भजन कर रहे हैं, सेवा कर रहे हैं, भीतर का भाव को पकाने के लिए। यह व्यर्थ नहीं है, कभी नहीं सोचना जाएगी कि; नष्ट हो जाएगा, नहीं लेकिन असली अर्थ यही है कि बाहर का आचरण गुरु कृष्ण की ममता बढ़ाने के लिए, भीतर का ममता। यह जब तक नहीं बढ़ता, तब बैठेगे कैसे? नहीं बैठते है इसलिए जीवन शुष्क लगता है, dry life(रूखा जीवन) जैसे लगता है हम लोग को। 


देखो! यह रामदेव बाबा, यह बड़ा-बड़ा factory(उद्योग) बनाकर यह कितना खुश है। बाबा ही नाम पर, भजन वगैराह कुछ नहीं है, physical exercise (शारिरिक कसरत) कर रहे हैं, ऊपर नीचे हो रहे है, वो इतना खुश है। भाई, हम हरे कृष्ण कर रहे है, ठाकुर जी के दर्शन कर रहे है, कीर्तन कर रहे है, खुश नहीं है, dry life(रूखा जीवन) यही है, कारण यही है। यही जीवन है, जीवन नहीं है, कृपा नहीं है, गुरु कृष्ण भीतर नहीं है। भीतर का जो भाव है न वह पक्का नहीं। बाहर का काम तो चलता है इसलिए श्रवण, कीर्तन से जुड़े रहते है, गुरु की सेवा से जुड़े रहते है। यह philosophy (सिद्धांत) है, ये शुष्क भावना नहीं है। क्या तुम चिंतन करेंगे? क्या तो भजन करेंगे भाई? परंपरा की जो शिक्षा है, उसको लेकर हम जी रहे हैं। यह perfect(उच्चतम) चीज़ है। मेरा जीवन में नहीं हो सकता, यह अलग बात है लेकिन जाना है तो यही पथ पर जाना है। आप national highway(नैशनल हाइवै) में जा रहे है, accident(हादसा) हो गया तो आपको क्या मिलेगा? P.C.R van(पिसीआर वैन), police van(पुलिस वैन) है न कभी-कभी P.C.R(पिसीआर) लिखा है, मैं भुवनेश्वर में देखा हूँ, मुझे तो पता नहीं है बहुत चीज़, P.C.R van(पिसीआर वैन), police(पुलिस) लोग duty(ड्यूटी) करते हैं न, accident(हादसा) हो गया तो main road(मैन रोड) में, क्या होगा? police(पुलिस) ले जाएगा ना और main road(मैन रोड) नहीं है, आप छोटा road(रोड) में भीतर जा रहे है, accident(हादसा) हो गया तो? गाँव का आदमी भी नहीं पूछेंगे, मरने दो उनको। भाई हम main road(मैन रोड) जाने वाले। परंपरा आचार्य लोग जो शिक्षा दिए है ना? इसमें जाना है। accident(हादसा) हो जाएगा तो हो जाएगा, वो है, उनका पथ पर हम चल रहे हैं। मन धर्म नहीं करना चाहिए; ये पथ अच्छा है, ये भजन है, क्या भजन है? मुझे पता नहीं है भाई। क्या भजन करने वाले तुम? माया के भजन करने वाले थे, उनकी कृपा से हम आ गए, उनका पथ पर चलेंगे, accident(हादसा) हो जाएगा हो जाएगा, प्राप्ति हो जाएगा हो जाएगा। गंतव्य स्थान पर हम पहुँच जाएंगे तो पहुँच जाएंगे, इसमें क्या है? तो भीतर का भाव को पकाने के लिए, हम साधन कर रहे हैं। ममता, सबसे अगर सुंदर परिभाषा में बोलेंगे न, गुरु और कृष्ण से ममता बढ़ाने के लिए हमारा भजन है। यह माला कुछ नहीं है, यह माला, कितना माला हम किए हैं? इसका बल यही है कितना ममता बढ़ रहा है गुरु और कृष्ण, वैष्णव लोग से, हरि, गुरु, वैष्णव से ममता कैसे बढ़ रहा। 


तो महाप्रभु बोल रहे “नित्यानंद को निकाल दो, निकाल दो”। गुरु, कृष्ण जब घुस जाते हैं न? आप निकाल नहीं सकते। समझ रहे है न? मैं कल प्रभु जी को बोल रहा था, ब्रह्मचारी class(कक्षा) में बोल रहा था “ठाकुर जी हमको निकालते नहीं है, sorry(सॉरी), हम निकाल कर नहीं जाते है, हम छोड़ते है, बोलते हैं न ‘मैं आश्रम छोड़ दूँगा’, भाई तुम क्या छोड़ेंगे? तुमको ठाकुर पकड़ा नहीं है ना इसलिए तुम छोड़ कर चले जाते हो।” वो छोड़ देते हाथ ना?, माँ जब हाथ छोड़ देते है बच्चे का, तब क्या होता है? बच्चा गिर जाता है। ठाकुर छोड़ देते है हमको, हम सोचते हैं ‘मैं छोड़ दिया’, तुम क्या छोड़ेंगे? तुम पकड़े था क्या? गुरु कृष्ण तुम्हारे हृदय में थे क्या? तुम छोड़ नहीं सकते हो भाई और ठाकुर जिसको पकड़ लेंगे ना? वह कोशिश करता है, मैं जाऊँगा, बाहर जाऊँगा, कभी आप नहीं जा सकते, कोई भी plan(तरकीब) बनाइये, कोई भी project(परियोजना) बनाइए, सब fail(विफल) हो जाता है। वो जहाँ भी hook(हुक) लगाता है न hook(हुक) समझ रहे न? hook(हुक) लगाता है, first phase(फर्स्ट फेज), second (सेकंड) पे, third(सेकंड) पे जो लगाता है, इसमें fuse(फ्यूज़) चला गया लगाओ इधर, इधर current(करंट) नहीं है इधर, कहाँ भी business(व्यापार) करता है, पिता-माता से संबंध रखता है, लड़की से संबंध, कहाँ भी कुछ करता है। सब fail(फेल) हो जाते हैं क्योंकि ठाकुर जी उनको पकड़ लिए है ना, छोड़ेंगे नहीं। गुरु कृष्ण जिसको पकड़ लेते हैं? वो छोड़ते नहीं। निकालेंगे क्या आप? श्रीवास, यही निष्ठा, इसको निष्ठा बोलते है,निश्चलयता। गुरु कृष्ण से ऐसा निष्ठा होना चाहिए “मेरा पतित अवस्था हो जाएगा, पतित होगा, गिर जाऊँगा लेकिन चरण पकड़ कर।” देखे है न फाइटर? क्या बोलते है? मैं तो कभी नहीं देखा हूँ, सुना हूँ। जो ये लगते हैं न, क्या? Boxer(बक्सर), boxer(बक्सर) जो लगते हैं, छोड़ते हैं क्या? वो गर्दन से लेकर पैर पकड़ कर रहते हैं, दोनों, लगते हैं ऐसे। कौन defeat(विफल) होगा? कौन win(विजय) होगा? ये तो बाद की बात है लेकिन लगे रहते हैं न,हम लोग का काम ऐसा है। छोड़ना नहीं है, गिरेंगे तो फिर पकड़ेंगे हम। ऐसा कभी नहीं सोचना चाहिए “ठीक है भाई मैं ब्रह्मचारी गृहस्थ हो गया, मेरा गया, सब चला गया।” क्या चला गया तुम्हारा? था क्या? था तो वही गुरु। अभी तुम गृहस्थ हो गए, ठीक है फिर पकड़ो, गिरना है तो उसको पकड़ कर गिरना है। मैं ओड़िया में बोलता हूँ मैं जब जाता हूँ, देख लेता हूँ तो भागवत याद आता है। मेरा भजन भी नहीं होता, जहाँ भी देख लेता हूँ मेरा भागवत याद आता है, अरे! इसको, इसका ये philosophy(सिद्धांत) घुसता है मेरा दिमाग में, ये मेरा भजन हो गया आजकल, यह जो बड़ा-बड़ा cyclone(चक्रवात) होता है न पेड़ निकल जाता है, पेड़ उखड़ जाता है। उस पेड़ को जब देखता हूँ, मेरा याद आता है,हमको ऐसा होना है। पेड़ उखड़ता है, देखे है न आप? जड़, मिट्टी को पकड़ कर उखड़ता है, उनसे जिया है न? मरेगा तो उनको लेकर मेरेगा, मेरा यही याद आता है। मैं देखा हूँ, पूरा मिट्टी को, जड़ पूरा, जड़ पकड़ता है मिट्टी को, हवा उधर ऐसे-ऐसे करके उसको उखाड़ देता है लेकिन मिट्टी को पकड़ कर मरता है, हम लोग का जीवन ऐसा है। मरेंगे तो मरेंगे, क्या? पतित हो जाएगा, fall down(पतन) हो जाएगा, क्या? हम तो fall down stage(पतन) में है। 


क्या? प्रभूपाद कहा करते न भाई तुम कभी-कभी कृष्ण consciousness(भावनामृत) में आते हो, हर समय माया में हो। प्रभूपाद को एक भक्त बोले कि वो माया में चले गए, fall down (पतन), प्रभूपाद कहे “you are always in maya, sometimes you are coming to Krishna consciousness(तुम हमेशा माया में रहते हो कभी कभी कृष्णभवनामृत में रहते हो)। हमारा जीवन ऐसा है, पकड़ कर मरेंगे, छोड़ेगे नहीं भाई, छोड़ेगे नहीं, निकालेगे क्या? नित्यानंद प्रभु जी को बोल रहे थे कि तुम चलो, महाप्रभु बोल रहे थे  “नित्यानंद को निकाल दो, निकाल दो”, श्रीवास बोले “नहीं! यह संभव नहीं”। और तुम नित्यानंद को नहीं निकालेंगे न? गाँव का आदमी को पता चलेगा कि नित्यानंद ऐसा है, ऊट-पटाँग काम कर है, तुमको निकाल देंगे गाँव से, परेशान हो जाएगा, तुम गृहस्थ आदमी हो, चार भाई हो, निकाल दो इसको। तब बोले हैं 


मदिरा-यवनी यदि नित्यानन्द धरे,

जाति-प्राण-धन यदि मोर नाश करे।   

तथापि मोहार चित्ते नहिब अन्यथा,

सत्य सत्य तोमारे कहिलुङ् एइ कथा।।  

 (मध्य-खंड ८.१५-१६,चैतन्य भागवत)


इसको श्लोक, महाप्रभु यह, श्रीवास जो श्लोक बोल रहे हैं, श्रीवास जो पैर बोल रहे हैं। महाप्रभु नित्यानंद प्रभु जी को परिक्रमा कर रहे थे और एक श्लोक निबंधन किए, यह पैर का श्लोक निबंधन करके। यह चैतन्य भागवत में है। घूम रहे थे, परिक्रमा कर रहे थे, परिक्रमा कर रहे थे। कितना प्रसंग है? जैसे व्यास पूजा प्रसंग है, बहुत सुंदर प्रसंग है, नित्यानंद प्रभु जी की व्यास पूजा। कौन आदेश दिए? हम sentiment(भावुक) आदमी नहीं है, हम भावुक नहीं है, लोग बोलते है न? व्यास पूजा करते है, क्या? गुरु का पूजा करते है। नहीं, ये परंपरा है। भगवान बोल रहे है, गौरसुंदर बोल रहे है  “श्रीवास, तुम्हारा घर में कल नित्यानंद प्रभु जी का व्यास पूजा होगा”। यह आदेश दे दिए। श्रीवास बहुत खुश हो गए। भगवान चाहते भी नहीं  मद्भ‍क्तपूजाभ्यधिका सर्वभूतेषु मन्मति: (श्रीमद्भागवतम - 11.19.21) भक्त की पूजा, भक्त को उपासना, ये भगवत भगवान से बड़ा है। इसका मतलब हम मयवादी नहीं कि भगवान छोड़ देते हैं, नहीं, नहीं, नहीं। ये दोनों का competition(प्रतियोगिता) चलता है, प्रतियोगिता चलता है। भगवान चाहते हैं कि मेरा भक्त का महिमा बड़े और भक्त क्या चाहते हैं? यह अनादिकाल से चल रहा है और इस परंपरा की स्रोत में हम हैं। भगवान चाहते हैं, जैसे प्रभुपाद देख ले, वह कीर्ति बढ़ाने के लिए। भाई बड़े होने का इच्छा है न? वह बड़ा आदमी बड़ा कर सकते हैं, यह गरीब आदमी क्या बड़ा कर सकते हैं? वह बड़ा है। देख लीजिए वह जिसको बड़ा किए हैं न, प्रभूपाद जी को इच्छा किए कि उनको मैं पकड़ लूँगा। संसार में कितना बड़ा काम किये। ये बड़े आदमी को जो बड़े, ओड़िया में कहावत है  “बड़े बन जाओ, नहीं तो बड़े आदमी का पास रहो”। आपको क्या बनना है? बड़े बन नहीं सकते है, हमारा क्या भजन है? बड़े, भाई तुम बड़ा मंदिर भी कर दो, कोई भी नहीं आएगा, गाँव का आदमी गाली देंगे  “यह चोरी करके मंदिर बनाए है”। बड़ा बन नहीं सकेंगे हम, बड़ा भक्त, best(श्रेष्ठ) है बड़े आदमी का पास रहो। यही बड़े आदमी है; प्रभूपाद, गुरु-वर्ग बड़ा आदमी है, पास में रह जाओ। Prime minister(प्रधान मंत्री) का पास में जो रहता है ना, उसका power(ताकत) बराबर है न? ऐसे बड़े आदमी का पास रहना है। हम लोग यही है। मंदिर क्या है? यही है। गुरु उपासना क्या है? मंत्र क्या है? पास में रहो। यह feelings(भाव) हमारा होना चाहिए। हम कितना बड़ा आदमी का पास है। यह भावना, यह सब भावुकता है न यह सिद्धांत, जो भावना है, यह घुस जाता है दिल में तब तो जीवन मिलता है। “भाई ठीक है!, मैं तो पतित हूँ लेकिन बड़ा आदमी का पास हूँ, अगर गिर जाऊँगा न वो मुझे उठा लेंगे।” 


हममें से शुद्ध कौन है? क्या होगा? क्या यह? क्या सोच रहे हैं आप लोग? प्रभूपाद जी नहीं है? क्या आप सोच रहे है आचार्य लोग नहीं है? क्या आप, आपका गुरु चले गए इसका मतलब आपका गुरु नहीं है? न मर्त्यबुद्ध्यासूयेत (श्रीमद्भागवतम 11.17.27) इसका मतलब क्या है? मर्त्य बुद्धि कभी नहीं करना चाहिए। ये मर्त्य, मर्त्य का मानन नहीं है। “Man of Vaikuntha” (वैकुंठ के वासी) भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर बोलते है, “They are man of Vaikunthas”(वह वैकुंठ के निवासी है।)” इस जगत का आदमी नहीं है। वो है हर समय। कृपा दृष्टि है। उनको पकड़िए, वो जो बोले है न? उनको मानिए। कृपा कैसे होता है? आप आचार्यनिष्ठ हो जाते हो, उनका वाणी का ऊपर कितना विश्वास करते हो, उनको कितना विश्वास करते हो, उनका वाणी का ऊपर कितना विश्वास करते हो। वो परमात्मा की प्रकाश है, परमात्मा आपको उतना ही faith(विश्वास) दे देंगे। निराश की कोई प्रश्न नहीं है इस पथ पर। 


व्यास पूजा बनाने के लिए महाप्रभु बोल रहे हैं, तब अधिवास कीर्तन शुरू हुआ, सब कुछ हुआ। तो दूसरा दिन नहाने के लिए गए  गंगा। वो तो बहुत बड़ा प्रसंग है…नहाने के लिए गए और व्यास पूजा होने वाले हैं, प्रेम आ गए नित्यानंद प्रभु जी का, मगर, मगर इधर-उधर घूम रहे थे गंगा में, मगर को पकड़ने के लिए गए। भाई आज व्यास पूजा दिन है, यह मगर को पकड़ कर ले जा रहे है। भक्त लोग हाय-हाय बोलने लगे, क्या होगा हालत? नित्यानंद यही कर रहे है और भीतर चला जाता है बिल्कुल। तैरते हैं न गंगा में तो पास में तैरते हैं न, वह पूरा भीतर चले जाते है। कोई नहीं पकड़ सकते हैं। मगर को पकड़ने के लिए, मगर तो भीतर रहता है, मगर को पकड़ने के लिए पीछे-पीछे भागते हैं। सब लोग हाय-हाय करते हैं, महाप्रभु बोलते हैं “ऐ नित्यानंद, क्या कर रहे हो? व्यास पूजा late(विलंब) हो रहा है, तुम आ जाओ, आ जाओ।” सुनते ही नहीं हैं, सिर्फ महाप्रभु बोलते तो सुनते। फिर महाप्रभु control(काबू) करके लाए और जब नहा लिए, व्यास आसन में बैठे, बैठने से पहले व्यासदेव को पूजा करना चाहिए। महाप्रभु बोले, ये मंत्र पढ़ो, मंत्र पढ़ो। वो नहीं मंत्र पढ़ रहे, वो क्या पढ़ रहे थे, किसी का समझ में नहीं आ रहा। समझ रहे है न? पूजा नहीं ले रहे थे। हम आज तक चेला क्यों है? हम पूजा ले रहे हैं। वो गुरु क्यों है? हमारा गुरु, गुरु क्यों है? वह पूजा नहीं ले रहे हैं, पूजा दे देते हैं। हमको पूजा करते हैं इसलिए “गुरु चेला नहीं बनाते, गुरु गुरु बनाते हैं” भक्तिविनोद ठाकुर का एक statement(वाक्य) है। समझ रहे है न ये कितना तत्व है। हम सोचते है, गुरुदेव लेकिन गुरुदेव सोचते हम लोग को, यह हमारा गुरु है। क्यों? मेरा गुरु की सेवा के लिए मेरा गुरुदेव ने उन लोगों को भेजे हैं, गुरु की सेवा के लिए, परंपरा की सेवा के लिए। यह लोग कौन है? मैं तो उपदेश दे रहा हूँ। यह बहुत difficult role(मुश्किल किरदार) है; उपदेश देना है, शासन करना है लेकिन गुरु बुद्धि। यह कितना बड़ा philosophy(सिद्धांत) है, समझना बहुत मुश्किल है। आपको कौन भेजे हैं? प्रभूपाद भेजे है। महाराज श्री इसी दृष्टि में देखते हैं। हमारा गुरुदेव बोलते थे व्यास पूजा में “आप लोग को प्रभुपाद भेजे, उनके सेवा के लिए, मैं तो माध्यम हूँ, मैं कुछ नहीं।” फिर भी शासन करेंगे।यह बुद्धि रहता है,गुरु बुद्धि यह difficult role (कठिन किरदार) है। पूजा नहीं लेते हैं इसलिए वह गुरु हैं, हम हम पूजा ले जाते हैं, यही हमारा problem (समस्या) है। हम पूजा ले जाते हैं, सेवा ले जाते हैं, सेवा स्वीकार कर लेते हैं। वो सब भगवान को देते हैं। तब नित्यानंद प्रभु जी क्योंकि उनका इच्छा नहीं था, व्यासदेव को माला पहनना चाहिए न, तो मंत्र नहीं पढ़ रहे थे, माला नहीं पहना रहे थे, तब जबरदस्ती किये, महाप्रभु बोल रहे कि “श्रीवास देखो! यह क्या कर रहे हैं, आज व्यास पूजा है, व्यास को माला नहीं दे रहे, मंत्र नहीं पड़ रहे।” श्रीवास जबरजस्ती किये कि  “नित्यानंद, महाप्रभु बोल रहे हैं कर लो”, तब वो माला लाए है, वो माला लाकर महाप्रभु का गला में दे दिए हैं। देखिए! तत्त्व कैसा है? क्या तत्व है? क्या लीला है? तत्त्व क्या है? आप ही व्यास, व्यास कौन है? व्यास तो आपका प्रतिनिधि है न आप भगवान है न, मैं व्यास को क्यों पूजा करूँ? आप तो साक्षात है, माला ले लिए। महाप्रभु बोले “देखो ये क्या कर रहे पागल? आज व्यास पूजा है, व्यास को देना चाहिए, मेरा गला में डाल रहे हैं माला।” इसमें सिद्धांत यही है, स्वीकार नहीं करते हैं, वापस दे देते। समझ रहे न आप? आप लिए, आप तो व्यास का प्रतिनिधि है, आप लीजिए। आज तक हमारा हालत ऐसा ही है, यह चेला बनकर, भक्तिविनोद ठाकुर वो भजन है न, 


तोमार किंकर, आपने जानिब, गुरु अभिमान त्यजि। 

तोमार उच्छिष्ट, पद-जल-रेणु, सदा निष्कपटे भजि।। 

'निजे श्रेष्ठ' जानि,' उच्छिष्टादि दाने, ह'बे अभिमान भार। 

ताइ शिष्य तब, थकिया सर्वदा, ना लइब पूजा का'र ।। 

(कृपा कर’ वैष्णव ठाकुर, कल्याण कल्पतरु) 


मैं किस का पूजा नहीं लूँगा, यह पूज्य भावना अभिमान है, हमको गिरा रहे हैं इसीलिए हम चेला, अभी तक चेला है, पक्का चेला भी नहीं बने, कच्चा चेला। चेला है? कोई हमको प्रभु जी नहीं बोल रहे हैं, प्रणाम नहीं कर रहे, मन दुख हो जाता है। हरे कृष्ण नहीं बोल रहे हैं, कल का devotee(भक्त) है, new devotees(नवीन भक्त)। भाई क्या है? एक प्रणाम को पकाने के लिए हमारा ताकत है? एक आत्मा, कृष्ण का दास हमको प्रणाम कर रहे, क्या दे सकते हम? क्या बल है हमारा? गुरु दे सकते हैं कृपा, फिर भी वो प्रणाम नहीं लेते हैं, वो प्रणाम वापस दे देते। समझ रहे न आप? भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर का एक सेवक थे, उसको हर समय कोई भी प्रणाम करता है न, वो सुनते थे, गुरुजी कुछ बोल रहे हैं धीरे-धीरे, जैसे नित्यानंद। क्या बोल रहे थे? किसी को पता नहीं था। भक्तिसिद्धान्त ठाकुर क्या बोलते थे? किसी को पता नहीं रहा। तो बहुत ध्यान से सुने, तो उसको सुनाई दे, “दासोस्मिः” चेला प्रणाम करता है, दासोस्मिः, तुम्हारा दास मुझे बना लीजिए। ये स्वरूप स्थिति। अब हम लोग विच्युत हो गया न,अच्युत से विच्युत हो गए हम लोग इसलिए हमारा यह अभिमान आ रहा है। मैं तोमार किंक  मैं आपका दास हूँ, तोमार किंकर, आपने जानिब, गुरु अभिमान त्यजि, ये गुरु अभिमान हमारा भीतर है। मत सोचिए हमारा नहीं, यह गुरु अभिमान। इसलिए नित्यानंद प्रभु, जो आदि गुरु है न, वो पूजा दे दिए महाप्रभु। नहीं, नहीं, यह माला, यह पूजा आपका है, मेरा नहीं और महाप्रभु सिखा रहे है, नहीं, मेरा भक्त का पूजा होना चाहिए और भक्त पूजा स्वीकार नहीं करते। समझ रहे हैं न आप? वो भगवान है, परंपरा में यही वैशिष्ट्य है। 


मै हिंदी में बोल रहा था और ऑडिया में, मुझे बहुत अच्छा लगता है, यह आसन आज तक खाली है। यह व्यास आसन में कोई बैठता नहीं, समझ रहे है? गुरु आसन जो है, व्यास आसन, गुरु का जो आसान है, वह आज तक हमारा परंपरा में खाली है, कोई नहीं बैठता। सब गुरु है लेकिन बैठते नहीं कोई, “ताइ शिष्य तब, थकिया सर्वदा, ना लइब पूजा का'र” मैं किसी का पूजा नहीं लूँगा, मैं शिष्य हूँ, यह शिष्य अभिमान में एक गुरु आसन अलंकृत करते हैं। यह परंपरा को, गौड़ीय परंपरा जैसे परंपरा कहाँ नहीं है। इतना सुंदर हम लोग का भाव है, महाप्रभु हमको सिखाए हैं। समझ रहे न आप? कोई गुरु नहीं मानते हैं लेकिन हम उनको गुरु बोलते हैं, वह बोलते हैं “मैं चेला हूँ”। अगर सब चेला है, तो गुरु का आसन खाली है कि नहीं? कौन? कौन बैठेगा उधर? कोई नहीं बैठता है। यही हमारा परंपरा। यह हमारा वैशिष्ट्य है। हमको ऐसे बनना है चेला  “मैं किंकर हूँ”। कभी गुरु अभिमान मेरा नहीं है।


तोमार किंकर, आपनेजानिब, गुरु अभिमान त्यजि। 

तोमार उच्छिष्ट,पद-जल-रेणु,सदा निष्कपटे भजि।। 


मेरा भजन क्या है? आपका पद-चरण,उच्छिष्ट। आप श्यामनन्द प्रभु का जो आश्रम है, कभी जाएँगे, गोपी वल्लभपुर। वह मंदिर बनाए थे, गोपी वल्लभपुर, जन्म स्तंभ अलग है, आश्रम अलग है, पास में नदी है। उनका कृष्ण-बलराम, बहुत सुंदर कृष्ण-बलराम, बहुत सुंदर कृष्ण-बलराम। मुझे तो ठाकुर को, आचार्य लोग का ठाकुर देखने से मुझे दुख चला जाता है भाई। उन लोगों का सेवा मिल जाए तो जीवन धन्य हो जाए। इतना सुंदर कृष्ण-बलराम लेकिन उधर आप जाएँगे न? वैष्णव लोग को देखेंगे, तो पुजारी आपको थोड़ा जल्द देंगे। रसिकानंद प्रभु उधर ही रहते थे। आपको थोड़ा पानी, चरणामृत जैसा जल देंगे, आप अगर मांगेंगे तो। पता है। रसिकानंद प्रभु जब थे न? कितना-कितना लाख वैष्णवों को बुलाए थे, सबको भोजन दिए और सबका चरण जल धो, चरण प्रक्षालन किए और उसका जल को रखें और हर दिन लेते थे। वो जल आज तक है, आज तक है। कोई जाता है न? मांगता है न? वो दे देते है। इसमें गंगाजल मिला लेते हैं, कोई अपराध नहीं है, 


गंगा जार पदजल हर शिरे धरे।

हेन निताई ना भजिया दुःख पाइ मरे ।।

(निताई मोर जीवनधन, श्री कृष्ण-गीता चिंतामणी)


भगवान, वैष्णव लोग ऐसे है। हमारा परंपरा है। हमारा भजन यही है  निष्कपट से गुरुजी का चरण जल, उच्छिष्ट, स्मरण, सेवा, यह है हमारा भजन है। और मेरा सेवा, मेरा उच्छिष्ट कोई लेंगे, मेरा सेवा कोई करेंगे, नहीं, “निजे श्रेष्ठ' जानि,' उच्छिष्टादि दाने, ह'बे अभिमान भार” बहुत अभिमान हो जाएगा, मेरा सेवा कर रहे हैं, मैं शिष्य हूँ। यह शिष्य अभिमान जिसका भीतर आ जाता है न वह गुरु बनता है। हमारा गुरु अभिमान है इसलिए हम चेला है। यह छोटा काम नहीं है, बहुत बड़ा काम है। हमारा परंपरा में जो आचार्य मंडित है, यह अभिमान में अलंकृत किये है आश्रय। यही तृणदपि, तृणदपि भाव क्या है? यही तृणदपि भाव, यही तृणदपि भाव है। बाहर से बोल देते हैं हम, ऐसे है, humble (विनम्र) हैं, भाई क्या humble (विनम्र) यही humble (विनम्र) “ताइ शिष्य तब, थकिया सर्वदा, ना लइब पूजा का'र” मैं किस का पूजा नहीं लूँगा। जैसे नित्यानंद प्रभु ने बोले, आपका पूजा होना चाहिए। नृत्य, कीर्तन सब चला लेकिन सब दे देते हैं। हमारा कुछ नहीं है। जो मालिक है उनको दे दे, भक्तिविनोद ठाकुर का पद सुने हैं न आप? 


सर्वस्व तोमार, चरणे संपिया, पड़ेछि तोमार घरे।

तुमि त' ठाकुर तोमार कुकुर, बलिया जानह मोरे ॥ 

(सर्वस्व तोमार, चरणे संपिया, शरणागति)


आप मुझे कुत्ता जैसे समझ लीजिए, आप ठाकुर है, मैं कुत्ता हूँ। कुत्ता का पास ठाकुर नहीं रहता है, sorry (क्षमा) ठाकुर का पास कुत्ता नहीं रहता है, ठाकुर का पास कुत्ता रखते हैं? रखते हैं? लेकिन वो ऐसे ठाकुर है, हम जैसे कुत्ता को रखे है, कुत्ता से भी हम गंदा है। इतना पतित पावन है। आप कुत्ता जैसा मुझे समझ लीजिए। मैं भीतर नहीं जाता हूँ, मैं द्वार से पड़ा, बाहर से पड़ा। यह हमारा परंपरा का वैशिष्ट्य है। नित्यानंद प्रभु इस, कृपा का, नित्यानंद प्रभु कृपा का वैशिष्ट्य है। हमको सिखा रहे हैं। महाप्रभु इसलिए व्यास पूजा किये लेकिन नित्यानंद प्रभु, महाप्रभु जी को पूजा किये। 


सुंदर परंपरा है और यही मैं बोल रहा था निष्ठा की बात में मदिरा-यवनी, नित्यानंद प्रभु परिक्रमा भी किए, मैं इस श्लोक बोल रहा था? “मदिरा-यवनी यदि नित्यानन्द धरे, जाति-प्राण-धन” मेरा जाति नष्ट हो जाए, मेरा प्राण नष्ट हो जाए, मेरा धन नष्ट कर दे नित्यानंद फिर भी मेरा सब कुछ है। कौन बोल रहे है? श्रीवास। मदिरा-यवनी यदि, यदि, कभी नहीं करेगा, अगर कर लिया तो शराब पी लिया नित्यानंद और वेश्यालय गए, वारांगना का पास गए, फिर भी वह ब्रह्मा की पूजा है, मैं बोल रहा हूँ। तो महाप्रभु नाचने लगे, श्रीवास तुमको कैसे पता चला नित्यानंद का तत्त्व? मेरा नित्यानंद तुमको कैसे पता चला? यही है तत्व। पता कैसा चलता है? गुरु भगवत, आविष्ट्भगवत्कृपासक्त, कृपा में, क्या बोले? कृष्णकृपामूर्ति है। यह पता हो गया तो हो गया जीवन। आपको कैसा पता चला? महाप्रभु बहुत खुश हो गए और वर देने लगे “मैं आशीर्वाद देता हूँ, तुम्हारा घर में जो कुत्ता है…” और क्या बोलते हैं उसको? बिल्ली। “....बिल्ली, कुत्ता का भी भक्ति होगा।” महाप्रभु बोले चैतन्य भागवत में “बिराल कुकुर” बिल्ली है, कुत्ता है न? उनका भी भक्ती होगा और तुम्हारा क्या होगा? तुमको पता है? शायद लक्ष्मी हो सकता है, रास्ता में घूमेंगे पैसा के लिए लेकिन तुम्हारा कुछ अभाव नहीं होगा, मैं आशीर्वाद देता हूँ क्योंकि तुमको नित्यानंद पता हो गया। 


देखो! प्रमाण लेना है आपको? प्रमाण लेना है? क्या था प्रभूपाद जी का पास? क्या था? सिर्फ इतना पता था कि गुरु का शक्ति। आज देखिए, ४० रुपया से ४० करोड़ का एक-एक मंदिर। देख लीजिए हमारा भजन बल से हम सोचते है, मैं collection(इकट्ठा) कर रहा हूँ, हम collection (इक्ट्ठा) कर रहे हैं? यही है।वो पता है गुरु। इतना प्रार्थना किये गुरु को, ऐसे प्रेम किये है न, उनके भजन के बल से हम को जिला रहे, सब आ रहे। जैसे महाप्रभु आदेश दिए। अभाव संसार में, जो अभाव बोलते हैं, मेरा नहीं है मेरा। क्या नहीं है तुम्हारा? यही problem(समस्या) यही है। हमको पता नहीं होता है नित्यानंद की कृपा, गुरु की कृपा, आचार्य लोग की कृपा। अभाव अभाव कुछ नहीं, सब कुछ है। यह परंपरा, पूर्ण परंपरा है। 


प्रेम जिस परंपरा में आ रहा है, फिर प्रेम, दास्य नहीं, साख्य नहीं, वात्सल्य, माधुर्य प्रेम, राधा प्रेम। 


युग-धर्म-प्रवर्तन हय अंश हैते।

आमा विना अन्ये नारे व्रज-प्रेम दिते॥


अनुवाद - मेरे पूर्ण अंश प्रत्येक युग के लिए धर्म के सिद्धांतों की स्थापना कर सकते हैं। तथापि, मेरे अलावा कोई भी व्रजवासियों द्वारा की गई प्रेममयी सेवा प्रदान नहीं कर सकता।

(चैतन्य चरितामृत आदि लीला -3.26)


महाप्रभु यह बोल रहे हैं। मैं क्यों आया हूँ? युग धर्म प्रवर्तन करने के लिए? हरिनाम के लिए? मेरा अंश को अगर प्रकट करूँगा न, वह भी हरिनाम प्रवर्तन कर देंगे, प्रचार कर लेंगे। लेकिन मैं क्यों जाता हूँ? वो आए हैं और प्रेम रखने के लिए पात्रता हमारा नहीं है। नित्यानंद प्रभु को लेकर आए, पार्षद लोग को लेकर आए फिर छोड़कर गए परंपरा और पार्षद आचार्यों को, प्रेम को रखने के लिए। मेरा अंश, कोई अवतार आता है ना? वह भी प्रचार कर सकता, हरिनाम युग धर्म लेकिन ब्रज प्रेम तो मैं दे सकता हूँ, ये मेरा property(संपत्ति) है  “आमा विना अन्ये नारे व्रज-प्रेम दिते” मेरे सिवा दूसरा कोई ब्रज प्रेम नहीं दे सकते इसलिए हम गौरांग नित्यानंद आसत्त है। 


तो ठीक है, आप लोग की कृपा से हम कुछ नित्यानंद प्रभु जी की कथा सुने, लीला तो ज्यादा मैं, मैं लीला में घुसता हूँ तो फिर मुझे तत्त्व याद आ जाता है। तो हम लोग का जीवन यही है। गुरु, वैष्णवनिष्ठ होना और गुरु अभिमान छोड़ना। निष्ठाता जैसे जीवन में आए। आचार्य लोग तो बहुत कुछ तत्त्व लिखे हैं लेकिन सार तो यही है “श्री गुरु चरणे रति, एइ से उत्तम-गति, ये प्रसादे पूरे सर्व आशा” (गुरु वंदना, प्रेम भक्ति चंद्रिका) प्रसाद, कृपा। तो आप लोग मिल जुलकर भजन कीजिए, मंदिर, प्रभुपाद जी का मंदिर है सुंदर, प्रभु जी बनाए हैं, प्रभु जी है, प्रेम हरिराम प्रभु जी और भक्त लोग है, राधेश्याम प्रभु जी आ रहे हैं, बहुत भक्त लोग आ रहे हैं। बड़े उत्साह सेवा करना चाहिए है और प्रार्थना करें, आचार्य लोग को प्रार्थना कीजिए हर समय। अगर कुछ मन में आता है न आप लोग मुझे जिलाए, आप लाए हैं न? विषय को छोड़ना, छोड़कर आना फिर इधर रहना, यह किसका बल पर? मेरा बल पर? एक पल में कहाँ गिर जाएंगे हम, इतना दिन हम जी गए, आपकी कृपा से, आप जिलाए, आप जिलाए। बार-बार प्रार्थना कीजिए नित्यानंद प्रभु जी को, महाप्रभु जी को, आचार्य लोग को। सब कुछ मिल जाएगा हमें जीवन में। 



हरे कृष्णा! 

जय पतित पावन नित्यानंद प्रभु की जय! 

गौर सुंदर की जय! 

श्री श्री राधा माधव ललिता विशाखा की जय! 

राम लक्ष्मण सीता हनुमान जी महाराज की जय! 

श्रीला प्रभूपाद श्रीला गुरुदेव सब भक्त वृंद की जय! 

निताई गौर प्रेमानन्दे! 

हरि हरि बोल!


परम पूज्य हलधर स्वामी महाराज - मैं आभारी हूँ, प्रभु…श्री श्री देवकीनंदन प्रभु ने मुझे बुलाए है। देख लिए और पकड़ लिए,चलना है मंदिर। प्रभुजी भीमसेन जैसे बोलते है न,तो मै तो…पकड़ लिए और बोले अभी जाना है। मै बोला “कहा अभी नहीं जाना है,अभी कोरोना चल रहा है” मै मन में सोच रहा था। तुमको जाना है,मै अभी president को बोलता हूँ। तब प्रभुजी की दया से मै आगया। मुझे डर लगा था,मेरा हिंदी तो इतना शुद्ध नहीं है और भक्त लोग मुझे पहचान नहीं है। जैसे पुणे जाता हूँ न भक्त लोग का कुछ पहचान है तो बोलने से इतना डर नहीं लगता है। इधर आ गया हूँ, आप लोगों का संग मिला,बहुत सुख मिला। ठाकुर जी का दर्शन हो गया,राधा माधव बहुत सुंदर…गौर निताई का भाव बहुत सुंदर है। तो आप लोग मिलजुल कर सेवा कीजिए,मंदिर आईए,बार बार सेवा कीजिए यह घर है हमलोग का घर है। जायेंगे इधर,मरेंगे इधर। तो आप लोग प्रभुपाद जी के सेवा कीजिए। 


हरे कृष्ण,हरे कृष्ण। 


[1:27:20] - Inaudible (आवाज नहीं)

[1:27:45] - भक्त - गुरु अनुगत्य और आश्रय दाता है। कैसे हम को निष्ठ रहना है,गुरु के प्रति, नाम के प्रति? और विशेषकर हमारी परंपरा, कितनी unique (अनूठी) है। यह बार बार आपके प्रवचन में बाहर आ रहा था कि विशिष्टता क्या है हमारे मन में? और उसका भाव। बहुत ही सुंदर लीला, आपने प्रभुपाद जी की लीला से बहुत मधुर तरीके से बाहर स्थापित किया है। इसमें आपके analogies(उपमाएं) बहुत अच्छी थी “1:28:27” inaudible हाईवे वाला लिए। तो वास्तव में ये बहुत ही प्रेरित कर रह है कि हम अपनी कृष्ण भक्ति में गुरु की भक्ति में मिलजुल कर सेवा करे। आपके उदाहरण शाम को जो आपकी ब्रह्मचारी class (कक्षा) में जो उत्तर दिए “1:28:50” श्रील प्रभुपाद के प्रति शरणागत होंगे ……. आपने कुछ ही दिनों में जैसे प्रभुजी ने बोला जैसे…थोड़ा accept करके कानपुर आए और हम सबको कृष्ण भक्ति में उन्नत करने के लिए आइए….. महाराज जी का अगला फ्लाइट है आज “inaudible” 


महाराज जी का धन्यवाद करते है हरि बोल बोल कर  

[उच्च स्वर में ] सभी भक्त - हरि बोल।