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Nityanand Katha - HH Haladhar Swami Maharaj ISKCON Kanpur 2021

भजन -

परम करुणा, पहु दुई जन

निताई गौरचन्द्र 

सब अवतार-सार सिरोमणि 

केवल आनंद-कांद


भजो भजो भाई, चैतन्य निताई 

सुदृढ़ बिस्वास कोरी 

विषय छाड़िया, से रसे मजिया, 

मुखे बोल हरि हरि


देखो ओरे भाई, त्रि-भुवने नाइ

एमन दयाल दाता

पसु पाखी झुरे, पाषाण विदारे, 

सुनि' जनर गुण-गाथा


संसारे माजिया, राहिलो पोरिया, 

से पदे नहइलो आस 

आपन करम, भुंजये समन, 

कहए लोचन दास


जय गौर निताई, गौर निताई, गौर निताई जय गौर निताई

जयो नित्यानंद राम, जयो नित्यानंद राम, पतितपाबन नित्यानंद राम

जय जय प्रभुपाद, प्रभुपाद, प्रभुपाद, श्रील प्रभुपाद

जय जय गुरुदेव, गुरुदेव, गुरुदेव, श्रील गुरुदेव

निताई गौर हरि बोल, हरि बोल, हरि बोल, हरि बोल


पतितपावन श्री श्री गौर नित्यानंद प्रभु की जय

श्री ऐ. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी श्रील प्रभुपाद महाराज की जय 

इस्कॉन के संस्थापक आचार्य कृष्ण कृपामूर्ति श्रील प्रभुपाद जी महाराज की जय

अनंत कोटि वैष्णव भक्त बृंद की जय

श्री श्री गौर सुन्दर नित्यानन्द प्रभु की जय

श्री श्री राधा माधव ललिता विशाखा की जय

राम लक्ष्मण सीता हनुमान जी महाराज की जय

संबित भक्त बृंद की जय

निताई गौर प्रेमानन्दे हरि हरि बोल


मंगलाचरण - 

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया

चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः

श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले।

स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्॥

वन्देऽहं श्रीगुरोः श्रीयुतपद-कमलं श्रीगुरुन्‌ वैष्णवांश्च

श्रीरूपं साग्रजातं सहगण-रघुनाथान्वितं तं सजीवम्।

साद्वैतं सावधूतं परिजन सहितं कृष्ण-चैतन्य-देवम्‌

श्रीराधा-कृष्ण-पादान्‌सहगण-ललिता-श्रीविशाखान्विताश्च॥

नम ॐ विष्णु पादाय कृष्ण प्रेष्ठाय भूतले।

श्रीमते भक्तिवेदान्त स्वामिन् इति नामिने।।

नमस्ते सारस्वते देवे गौर वाणी प्रचारिणे।

निर्विशेष शून्यवादी पाश्चात्य देश तारिणे।।

हे कृष्ण करुणासिन्धो दीनबन्धो जगत्पते।
गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोऽस्तु ते॥

तप्तकाञ्चनगौराङ्गी राधेवृन्दावनेश्वरी।
वृषभानुसुते देवी प्रणमामी हरिप्रिये॥

वाञ्छा-कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च।
पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः॥

नमो महावदन्याय
कृष्ण-प्रेम-प्रदाय ते

कृष्णाय कृष्ण-चैतन्य-

नम्ने गौर-त्विषे नमः

जय श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि-गौरभक्तवृन्द॥

हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

हरे कृष्ण 

सभी भक्त लोगों के चरण कमल में मेरा प्रणति है। आज सभी आचार्य लोग, वैष्णव भक्त लोग की कृपा से, गुरु परम्परा के आचार्य लोगो की कृपा से, हमें ये सत्संग प्राप्त हो रहे हैं।

हमारे जो शुद्ध परम्परा है, इसको गौड़्य परंपरा, आप लोग जानते यह ब्रह्म माध्य गौड़्य परंपरा है। ये गौड़्य जो शब्द है, हम लोग तो भागवत कथा ही सुनते हैं, और आप जैसा उत्तर प्रदेश में रामायण, रामायण तो ज़्यादा नहीं, रामचरितमानस, आजकल तो महाभारत की कथा भी भक्त लोग सुनने लगते हैं। ठीक है भाई सुन लीजिये, लेकिन हमारे परंपरा का जो स्तम्भ है, वह है गौड़ीय। ब्रह्म माध्य, चार संप्रदाय में, ब्रह्मा से शुरू होकर माधवाचार्य ने जो आये, माधवाचार्य के सम्प्रदाय को महाप्रभु ने स्वीकार किये। अलग जो तीन संप्रदाय थे, महाप्रभु ने उनको क्यों नहीं स्वीकार किये? 

माधवाचार्य संप्रदाय में महाप्रभु इसीलिए स्वीकार किये की इसमें विग्रह सेवा है। महाप्रभु जब गए ना तो दर्शन किए। ठाकुर जी को इतना सुंदर प्रेम से सेवा करते हैं न।उडुपी में। और महाप्रभु इसलिए उनको स्वीकार किए।

नाम, रूप और विग्रह यह तीनों चिदानंदमय है। ठाकुर जी, भगवान कैसे हैं, भगवान से हम लोग का क्या संपर्क है, क्या संबंध है, कुछ भी हमको पता नहीं है। माया इधर बहुत पिटाई करती है ना, तब तो हमको थोड़ा बहुत पता चलता है कि कोई भगवान है। कोई बड़ा आदमी है। इससे पता चलता है। दूसरा आईडिया कुछ नहीं है। जैसे हम सब शास्त्र सुनते हैं, पढ़ते हैं, सब कुछ, लेकिन यह मन का भीतर है, मन का बाहर नहीं जाता है। समझ रहे ना। मन का भीतर सोचता है कि, गोलोक वृंदावन एक है, कृष्ण एक है, हां है। बाहर नहीं जाता है। क्यों की तीन गुण का भीतर है न हमारा बुद्धि, तो इसके ऊपर कैसे जा सकता है।

इसलिए ठाकुर जी कृपा करके, ठाकुर जी का पहला जो कृपा है, “फर्स्ट शावर ऑफ़ मर्सी” बोलते हैं न, ठाकुर जी जो बर्शन करते हैं न, इसमें पहले आते हैं कौन?  ठाकुर जी का पहला कृपा यही है - “विग्रह”, “विग्रह स्वरुप”। विग्रह स्वरुप में खुद प्रकाशित होते हैं। ठाकुर जी के नाम, रूप और विग्रह, ये चिदानंदमय हैं। इसमें सबसे पहले हैं विग्रह। विग्रह स्वरुप से प्रकट होते हैं। लेकिन एक रहस्य है। विग्रह स्वरुप किसका सम्मुख में प्रकट होते हैं? भक्त के सम्मुख में, आचार्य के सम्मुख में। और विग्रह प्रकट होते हैं ये क्यूंकि हमको देवा देने के लिए। सम्बन्ध, ठाकुर जी से जो सम्बन्ध प्राप्त होंगे न, वह विग्रह के माध्यम से प्राप्त होते हैं। महाप्रभु ने माधवाचार्य को इसलिए स्वीकार किए। उन्होंने देखा के यह कितना सुंदर दर्शन है, माधवाचार्य कम से कम ठाकुर जी को प्रेम करते हैं। भगवान की अच्छा से सेवा करते हैं। तो सेवा प्रकाश जो है, ठाकुर जी जो प्रकाशित होते हैं न विग्रह स्वरुप से, उनकी ये पहला कृपा है। लेकिन वह जो विग्रह को प्रकाशित करते हैं, जिनके प्रेम में वश होकर ठाकुर जी इधर आ जाते हैं, वह कौन है? आचार्य। हमारे परिभाषा में हम उन्हें गुरुदेव बोलते हैं। हरिदेव, गुरुदेव। हरिदेव पास में है न, सुना है। हरिदेव। हरि देव हैं, हरि भगवान है, और गुरु देव है, गुरु भगवान है। जैसे मायावादी लोग गुरु जी को भगवान मान लेते हैं ना, यह सेवक भगवान हैं। हमको सेवा सिखाने के लिए आए हैं। प्रेम सिखाने के लिए आये हैं। इसलिए भगवान है। सेव्य भगवान, और सेवक भगवान। भगवान कृष्ण कौन है - सेव्य भगवान। सेवक भगवान भी सेव्य भगवान की सेवा करते हैं। हमारा जो गौड़्य दर्शन है ना, सेवक भगवान प्रकट होते हैं सेव्य भगवान का सेवा सिखाने के लिए। विग्रह का सेवा कैसे हम लोग को करना है, भगवान को कैसे प्रेम करना है। आचार्य जब तक प्रकट नहीं होते है, ना तो नाम का स्वरुप प्रकट होता है, ना विग्रह का स्वरुप प्रकट होता है, ना भागवत का स्वरुप प्रकट होता है। तादिय वस्तु जितना है ना, कुछ भी प्रकट नहीं होता है।

मैं कुछ दिन से पहले ओड़िआ में यह बोल रहा था की - ब्रज क्या नहीं था? वृंदावन भूमि नहीं था क्या? कृष्ण चले जाने का बाद वृंदावन भूमि वैसे ही था। ब्रजवासी नहीं थे क्या? थे। लेकिन ब्रज का भाव नहीं था। मैं निंदां नहीं कर रहा। ये हमारा जो गौड़्य सिद्धांत है ना, उसको अगर आपको पता हो जायेगा, तब आप जी जायेंगे। भावुकता नहीं आएगा मन में कभी। हमारा आचार्य लोगों के जो सिद्धांत है, इसके ऊपर हमको टिक कर रहना चाहिए। नहीं तो कलयुग में जीना बहुत मुश्किल है। भावुकता आ जायेगा, कभी कभी आप हताश हो जायेंगे। मानशिक रूप से आपको लगेगा - यह कुछ नहीं है, इसमें कुछ नहीं मिलेगा। कभी कभी ऐसा होता है ना। ब्रज था, लेकिन व्रत का भाव नहीं था। क्यों नहीं था? अरे ब्रज को प्रकट करने के लिए, इसलिए हमारा पैर है न। नरोत्तम दास ठाकुर जी ने लिखा है - 

इच्छय गोसाईं जबे ब्रजे कइले वास, 

राधा कृष्णा नित्य लीला करिले प्रकाश

क्या राधा कृष्ण। गोस्वामी लोग क्या प्रकाश किये? राधा कृष्ण लीला तो नित्य लीला है, और ब्रज में तो नित्य लीला चलता है। लोग बोलते हैं न ब्रज में नित्य लीला चलता है। तो सट गोस्वामी जी ने क्या प्रकाशित किये? बोलिये?

जो भाव प्रकट किए, राधा रानी का भाव क्या है? गोपी लोग का भाव क्या है? ब्रज में लोग रहते हैं ना, उधर भी हनुमान की पूजा करते हैं। मैं पूजा विरोध नहीं करता हूं। में जहाँ भी देखता हूँ, हनुमान की पूजा होता है, शिव जी का पूजा होता है, ठीक है तो पूजा करो, लेकिन भाव क्या है? ब्रज का भाव क्या है?

आराध्यो भगवान्व्रजेशतनयस्तद्धाम वृन्दावनं

रम्या काचिदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता ।

शास्त्रं भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमार्थो महान्

इत्थं गौरमहाप्रभोर्मतमतस्तत्रादरो नः परः ॥ — चैतन्य - मत - मंजूषा , श्रीमद भागवतम पर श्रीनाथ चक्रवर्ती ठाकुर का टीका 

इसमें आराध्य बृजेश तन है, मथुरेश नहीं है, द्वारकेश कृष्णा नहीं है। यह भाव किसको पता था? हमको कृष्ण को पूजा करना है, कौन से कृष्ण? ब्रजेशतनय - नंद महाराज का छोटा लड़का। और किसके हैं वह? राधा के। चंद्रबल के नहीं, रुक्मिणी के नहीं, द्वारकेश नहीं, मथुरेश नहीं। वही कृष्ण हैँ, हमारा भाव क्या है देखिये। राधा का। यही हमारे आराध्य हैं। आराध्य बृजेश भगवान। आराध्यो भगवान्व्रजेशतनयस्तद्धाम वृन्दावनं। यह जो भाव है, गोस्वामी लोगों ने प्रकट किये हैं। सट गोस्वामी लोगों ने।इसलिए महाप्रभु, जैसे आप कर्मी लोग पैसा कमाते हैं न, तो आपका पूंजी कहाँ रहता है? बैंक में। सोना गहना रखते हैं, पैसा रखते हैं। आचार्य लोगों के पूंजी कौन हैं? भगवन के पूंजी कौन हैं? आचार्य। इनको बहुत सावधानी से रखते हैं। महाप्रभु ने इन ६ गोस्वामी लोगों को भेज दिए - तुम जाओ वृंदावन। वृंदावन जाओ। क्यिंकि महाप्रभु कौन हैं? कृष्ण। भाव क्या है? राधारानी का भाव है। और वृन्दावन किसका घर है? घर की बात कौन बोल सकती है, या बोल सकता है? पति और पत्नी, मालिक और मालकिन। यही दोनों ना। वे राधारानी हैं, उनको पता था। इसलिए उनको बोले “तुम जाओ”। इसीलिए वह लिखे हैं - 

इच्छया गोसाईं जाये मि तार दास

तास बार पद रेनू मोर पंच ग्रास

इच्छय गोसाईं जबे ब्रजे कले वास, 

राधा कृष्णा नित्य लीला करिले प्रकाश

नित्य लीला का जो भाव है, ब्रज का जो भाव है, सखी लोग जैसे सेवा करते थे, राधारानी जैसे सेवा करते थे, हमको वैसे करना है। यह गौड़ीय सिद्धांत है। ये गौड़ीय जो शब्द है न, इसमें “गौर”। कितने आचार्यों ने इसका अर्थ किये हैं। इसमें “गौर का भाव”, महाप्रभु जी का भाव, इसमें प्राधान्य है। कृष्णा भक्त बहुत हैं। नहीं? महाप्रभु क आने से पहले क्या उत्तर भारत में या दक्षिण भारत में कृष्ण पूजक नहीं है? हैं, लेकिन महाप्रभु को नहीं मानते। उनको पता ही नहीं है महाप्रभु कौन हैं। तो कृष्ण को भजन करते हैं। तो अगर आप महाप्रभु को छोड़के कृष्ण का भजन करेंगे तो क्या मिलेगा आपको? क्या कुछ नहीं मिलेंगे? मिलेंगे। मिलेगा न। धर्म मिलेगा, अर्थ मिलेगा, काम मिलेगा, मोक्ष मिल जायेगा, प्रेम नहीं। कलयुग में चैतन्य महाप्रभु को छोड़ कर। क्युकी महाप्रभु कौन हैं? वे कृष्ण हैं हैं न। वह किस लिए आये हैं - नमो महावदान्यय, कृष्ण प्रेम प्रदायते। वे कृष्ण प्रेम देने के लिए आये हैं। यह गौड़ीय सिद्धांत है। इसलिए चैतन्य महाप्रभु, आप लोग जब भी उत्तर भारत में प्रचार करते हैं न, हम तो ओडिशा में हैं, हमको महाप्रभु का बात पब्लिक में बोलने क लिए डर लगता है। उनको पता नहीं है, वह सोचेंगे  चैतन्य महाप्रभु कौन हैं - वह एक बाबाजी थे। ऐसे ही सोचेंगे न, और क्या सोचेंगे? हम बोलते नहीं। कभी कभी बोल देते हैं। नहीं तो बोलते नहीं। आप लोग भी कभी नहीं बोलेंगे। आप बोलेंगे कृष्ण, राम।

लेकिन प्रभुपाद जी जब गए विदेश, देख लीजिये। आचार्य लोगों का प्रचार क्या होता है? हम लोगों का प्रचार और आचार्य लोगों का प्रचार में क्या फर्क है देख लीजिये। हम लोग तो समझौता कर लेते हैं। दूसरों के मन के हिसाब से हमको चलना पड़ता है। कभी कभी जब हम प्रचार करते हैं, तो हमको दूसरों क मन क हिसाब से चलना पड़ता है। हम सोचते हैं - ठीक है भाई, किसी तरन से ये भी भक्त बन जाये। तुम जैसे मानते हो वैसे मान लो। प्रभुपाद कभी समझौता नहीं करते। आचार्य लोग कभी सम्बन्ध, अभिदेय और प्रयोजन, तीनो से कभी निचे नहीं आते। कृष्ण सम्बंद हैं, और भक्ति अभिदेय है। और प्रेम प्रयोजन है। उनके प्रचार का सार यही है। वे कभी इसके निचे नहीं आते हैं। हम चले जाते हैं। ठीक है भाई, काम से काम वह आ जाये, हरे कृष्ण थोड़ा करे। लेकिन आचार्य लोग ऐसा कभी नहीं करते, समझौता कभी नहीं करते। विदेश गए और उधर ही गौर निताइ। बताइये कौन सा मंदिर हैं जहाँ पे प्रभुपाद जी ने गौर निताइ स्तापित नहीं किये हैं। हर जगह पे गौर निताइ को स्तापित किये। जभी विदेशी लोगों को पता नहीं था। थोड़ा बहुत पता था की गीता क्या है। उनको पता नहीं था गौर निताइ कौन हैं।

में तो ओड़िआ में हमेशा ये बोलता हूँ की देखो, हम लोग आज कल इस्कॉन में कितने प्रचारक हैं। इतने प्रचारक हैं। कोई भी प्रचारक, पब्लिक में बैठ कर, या व्यास आसान पर बैठ कर, सट गोस्वामी अस्टाक कभी गान किये हैं क्या? हम लोग गान करते हैं? प्रभुपाद, उनके सामने नए भक्त थे, उनके सामने बोलते थे - कृष्ण कीर्तन गान नर्तन करो। सुना है न आप लोगो ने? क्यों गान करते थे? कभी सोचे हैं, की यह लोग क्या समझेंगे? हमलोग जब प्रचार करते हैं तो देखते हैं जनता कौन है। क्या बोलूंगा तब ये लोग समझ सकते हैं। यही न। प्रभुपाद ऐसा नहीं किये। सट गोस्वामी अस्तकम आज तक कोई नहीं बोले हैं, हम लोग भी कभी पब्लिक में नहीं बोले हैं। लेकिन प्रभुपाद ने उधर बोले। उनको तो कुछ पता नहीं था। क्यों?

यह गौड़ीय सिद्धांत है। परंपरा के सिद्धांत को उज्जीवित करके रखना हमारा बल है। आचार्य लोगो का जो सिद्धांत है, प्रचार का सार क्या होता है पता है आप लोगो को? प्रचार में जब हमारा विचार घुस जायेगा न, तब हम भी पागल हो जायेंगे, और जो सुनेंगे वह भी पागल हो जायेंगे। भाई तरीका अलग अलग होता है। तुम अपने बुद्धिमता से प्रचार करो, दूसरे अपने बुद्धिमता से प्रचार कर सकते हैं, लेकिन एक है अंतिम - सिद्धांत किसका स्तापन करना है? आचार्य लोगो का सिद्धांत। निष्कर्ष इसी से देना है। तरीका अलग अलग होता है। जैसे विद्यालय, महाविद्यालयों में आप लोग प्रचार करते हैं, कोई गृहस्त लोगों को प्रचार करते हैं, कोई बड़े बड़े आदमी लोगों को प्रचार करते हैं, करो। उनके हिसाब से उनको समझाओ,लेकिन सिद्धांत यही देना है - आचार्य लोग जो बोले हैं, प्रभुपाद जो बोले हैं। इसमें थोड़ा भी समझौता नहीं करना है। उसमें बल नहीं होता है। वैसे प्रचार में बल नहीं आएगा। बल नहीं मिलता है। इसलिए हमारा जो गौड़ीय सिद्धांत है, गौड़ीय सिद्धांत में सबसे बड़ा आधार दो चीज़ है- 

१ गुरु निष्ठा

२ गौर निष्ठा 

३ नाम निष्ठा

यह तीनो है। और हमारा सार अगर कोई भक्त पूछेंगे - बताइये सबसे सरल सूत्र क्या है? यह तीनो है। हम जो उपजाते है न, ये भक्ति पथ पर हम प्रगति करते हैं, भक्ति में लगे रहते हैं, तो ये तीनो चीज़ के लिए। गुरु निष्ठ होने क लिए, आचार्य निष्ठ। गुरु निष्ठ - वृहद् अर्थ में - आचार्य निष्ठ होने क लिए, परंपरा आचार्य एवं तत्कालीन आचार्य। आचार्य निष्ठ होने के लिए। और गौर निष्ठ। गौर नित्यानंद, गौड़ीय परंपरा है न। इसमें राधा भाव प्राधान्य है। में यही बोल रहा था न, क्यों ब्रज है पर ब्रज भाव नहीं है, क्यों? आज भी जाईये ब्रज में लोग बोलते है न, ठाकुर जी मुझे उद्धार कर दीजिये, मेरा मुक्ति हो जायेगा तो बस हो गया। लोग तो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष तक जाते हैं। मोक्ष तक जाते हैं, उसके ऊपर नहीं। इसके ऊपर भी एक सिद्धांत है पता नहीं था। जब चैतन्य महाप्रभु आये तब पता चला प्रेम क्या है। प्रेम जो शब्द है, और प्रेम में फिर किसका प्रेम? लक्ष्मी का प्रेम नहीं। दास्य प्रेम नहीं, साक्ष्य प्रेम नहीं, वात्सल्य प्रेम नहीं, तो कौन सा प्रेम? माधुर्य प्रेम। और माधुर्य प्रेम में किसका? रुक्मिणी का? सत्यभामा का? उन लोग का प्रेम नहीं। राधा का प्रेम। महाप्रभु आने के बाद, क्यूंकि वही तो कृष्ण न, राधारानी का भाव को, चोरी करके लाये। चोर बने हैं। तब - नमो महा वदान्यय, कृष्ण प्रेम प्रदायते। कृष्ण प्रेम देने क लिए आये हैं। हमलोग भक्त बने हैं तो इसी लिए, और दूसरा कोई काम नहीं है हम लोग का। लोग दुखी हो जाये है, उनको प्रचार करते है न, माया बोहोत पिटाई करता है, बोहोत पिटाई करती है, तब लोग सोचते हैं। प्रभुपाद जी यही कहा करते थे , कलियुग में नब्बे प्रतिशत आरती और अर्थारती। समझ रहे हैं न आप। बुरा मत मानिये। लोग भक्त होते हैं न - आरती। बोहोत परेशानी में हैं न, इसलिए लोग भक्त बन जाते है। और अर्थारती - महत्वकांशा से, कामना से। लेकिन हमारा लक्ष क्या है? प्रेम। कृष्ण प्रेम प्राप्त करने के लिए हम भक्त बने हैं। प्रेम चाहिए। और प्रेम नहीं मिलेगा, तो जीवन बर्बाद हो गया। वही दुःख रहता है। 

प्रेम धन बिना व्यर्थ दरिद्र जीवन

दास करि बेतन मोरे देह प्रेम धन 

महाप्रभु रो रहे थे। मुझे प्रेम दे दीजिये। प्रेम के बिना ये जीवन व्यर्थ है। और दरिद्र है। मुझे दास बना लीजिये और वेतन में मुझे प्रेम दीजिये। ठाकुर जी के चरण कमल में मुझे प्रेम दीजिये। महाप्रभु से पहले, लोग ऐश्वर्य प्रेम तक जाते थे। जैसे द्वारकाधीश, रुक्मिणी, इतना तक। भाव में क्या अंतर है बताइये? रुक्मिणी, सत्यभामा उनके भाव में और राधा के भाव में, क्या अंतर है? ऐश्वर्य और माधुर्य के भाव में क्या अंतर है? वह लोग का भाव है “कृष्ण हमारे हैं”। राधे - “में कृष्ण की”। कितना अंतर है। यह भाव का अंतर है। इसलिए द्वारिका में कृष्ण सुख में नहीं थे। कृष्ण हमारे, और राधे क्या? में कृष्ण की। 

अश्लिश्या वा पाद-रतं पिनाष्टु मम

कितना बड़ा पात्रता चाहिए आप सोच लीजिये। हम लोग अभी तक ये खाना पीना, मेरा ये हो रहा है, मेरा ये हो रहा है, मेरा वो कष्ट है। इसको ही हम माला करके जप रहे हैं। लेकिन चैतन्य महाप्रभु, हम बोल रहे हैं मेरा कष्ट है, मेरा ये कष्ट है। तुम्हारा ये कष्ट है? राधारानी का क्या कष्ट है?

अश्लिश्या वा पाद-रतं पिनाष्टु मम। 

मद-दर्शन मर्म-हतं करोतु वा। 

यथा तथा वा विदधा

सब कष्ट को क्या बोले? कुछ भी कष्ट चाहे जीवन में आये, वह मेरे प्राण नाथ हैं। ये प्रेम है। कृष्ण मेरे प्राणनाथ है। कितना सुन्दर सिद्धांत है। भौतिक गंध इधर नहीं है। समझ रहे हैं न गंध क्या होता है। कुछ नहीं है भीतर। मुझे ये चाहिए, मुझे ये चाहिए। इसलिए “न” से महाप्रभु क्या बोल दिए - न धन, न जनं। हर बात पर न न बोले। नहीं नहीं नहीं। हाँ कभी नहीं बोले वह। भौतिक चीज़ पर हाँ नहीं बोले। मुझे ये चाहिए - कुछ नहीं। मुझे कुछ नहीं चाहिए। कृष्ण चाहिए। मन ने कोई नहीं रहना चाहिए। मन में कोई नहीं रहना चाहिए। गुरु और कृष्ण, बस। तब तो प्रेम क्या होता है हमको पता चलता है। क्यूंकि में पहली बार आ रहा हूँ, मुझे तो पता नहीं है, आप तो लीला सुनते हैं, में लीला ज़्यादा नहीं बोलता, में दर्शन पर ज़्यादा जाता हूँ। ये में आदत है, में घूम फिर कर उधर ही चला जाता हूँ। ठाकुर जी ले जाते है। ऐसा नहीं है की लीला पता नहीं है, पता है। लीला क्या होता है, सिद्धांत के बिना लीला तो कहानी जैसा हो जाता है। हमारे गुरुदेव कहा करते थे - में एक कहानी वक़्ता नहीं हूँ। में भी यही बोलता हूँ। आप बता दीजिये न की प्रभुपाद जी कितना कहानी बोले हैं? नहीं। हमारे गौड़ीय सिद्धांत है। 

सिद्धांत भलिया चीते न कर आलस

इहाँ हईते कृष्ण लागे सिदृढ़ा मानस — चैतन्य चरितामृत अदि लीला २ ११७

कृष्ण में जो सिदृढ़ मानस लगता है - सिद्धांत से। सिद्धांत का मतलब नहीं है की हमारा ह्रदय को हम सुस्क बना देते है। नहीं, रस लेते हैं। जैसे लड़के को पता चलता है न - मेरे पिता हैं। पता चल जाता है, ये मेरे पिता हैं। और पिता का धर्म क्या है? पुत्र को ललन करना, पालन करना, जिम्मेदारी लेना। वह पता हो जाता है पिता के सम्बन्ध में, उसका रस आता है। सिद्धांत में रास मिलता है। और कौन से सिद्धांत में रास नहीं है? जिसमें तर्क है। जैसे मायावादी लोगो का सिद्धांत। उनका काम है बस पकड़ना। वो संस्कृत में - आप ऐसे बोले, आप वैसे बोले, इधर ये लिंग है, वो है, समास है, व्याकरण है, वो क्या है? हमलोग ऐसे नहीं है। हम पंडित नहीं हैं। हम पंडित नहीं हैं। हम तो दास हैं। दास कभी पंडित बन सकता है? हम तो दास है। गोपी लोग पंडित नहीं थे। लेकिन पंडित शिरोमणि थे। कौन से बड़े पंडित आये थे? उद्धव, सबसे बड़े पंडित आये। और इतने बड़े पंडित आये, तो चरण छूने के लिए भी सहस नहीं किये। चरण छूने के लिए, धूलि प्राप्त करने क लिए, बोले नहीं इस जनम में नहीं होगा। ये पंडित हैं। रस में यही बल है। प्रभुपाद जी जो बोले हैं न, आज कल के पंडित लोग सुनेगे तो बोलेंगे - क्या बोले हैं। शरीर, आत्मा, यह है, वो है। 

भारत में कितने बड़े पंडित लोग हैं। दूसरे सम्प्रदायों में कितने बड़े पंडित लोग हैं। भाई आपका ज्ञान आप रख लीजिये भंडार में। हमको मत दिखाइए। हमारे आचार्य लोगो को हम पंडित नहीं मानते हैं, हमारे आचार्य लोग रसिक हैं। बड़ा कौन है - रसिक या पंडित? हम जो भक्त बने हैं, रसिक बनने क लिए। ये सब रस का काम है। हमारा जो सेवा है न, रस का है। सुबह से शाम तक, गोपी लोग जैसे सेवा करते थे न, इसीलिए। ये रस का काम है। ये पंडित का काम नहीं है। सुबह से शाम तक किताब पकड़ कर पढाई करना, पढाई करना, पढाई करना। पढाई का सार यही है। पढाई करना के लिए में मना नहीं करता हूँ। तुम पंडित बनो। पंडित बनने क बाद रसिक बनना पड़ेगा। अगर रसिक नहीं बन पा रहे हो तो जो पंडित हो न, वह सुस्क हो जाता है। बस, सुस्क बन जायेगा। महाप्रभु आये थे रस देने क लिए। इसलिए हमको तीनो चीज़ पर ध्यान देना है। महाप्रभु का जो दर्शन है, वह गौड़ीय सिद्धांत में ये तीनो चीज़। हम जितना पढाई, श्रवण, कीर्तन जो करते हैं न , ये तीनो चीज़ क लिए। आचार्य निष्ठ बनने क लिए। आचार्य निष्ठ बनने के लिए। और दूसरा - गौर नित्यानद निष्ठ।  जैसे हम पालन करेंगे - नित्यानंद प्रभुजी, गौर निष्ठ। गौड़ीय शब्द है। 

हमारे इष्ट कौन हैं? देखो बिच में फंस जाते हैं आप लोग। अरे कृष्ण को हम पूजा करते हैं। आपको पता होना चाहिए गौड़ीय सिद्धांत क्या है। हम गौर नित्यानंद को, भजन करते हैं कृष्ण का। भाव क्या है - श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद। पहले पंच तत्त्व करते हैं न। श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्री अद्वैता गदाधर श्रीवास अदि गौर भक्तवृंदा, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। उसके बाद बोलते हैं हरे कृष्ण। वही कृष्ण गौर हैं न। हमारे इष्ट कृष्ण हैं। लेकिन अगर सूक्ष्म भाव से हम सिद्धांत पकड़ेंगे न, हमारे इष्ट कौन हैं - गौर नित्यानंद। ये हमारे इष्ट हैं। क्यों इष्ट हैं? वह तो कृष्ण हैं। कलियुग में वह आये हैं न वह कृष्ण हमको उद्धार करने के लिए। हमारे लिए आये हैं, इस युग में आये हैं। तो वह इष्ट बने। इसमें गलती क्या है? वही तो कृष्ण हैं। और कृष्ण से ये परम दयालु हैं - नमो महावदन्याया। कृष्ण बोहोत शषर्त हैं। समझ रहे हैं न आप। आपको साफ़ वह नहीं करेंगे। आप कार्यालय जा रहे हैं न, अगर आपके कपडे साफ़ सुथरे नहीं हैं, तो क्या अधिकारी आपके कपड़े को साफ़ सुथरा कर देंगे? आपको भीतर अनुमति नहीं देंगे यह बोलके - आपके कपडे साफ़ नहीं हैं, बहार जाईये। आप घर में आ जायेंगे और आपके कपडे साफ़ नहीं हैं, माँ जी बोलेंगे क्या बहार चलो? क्या वह ऐसे बोलेंगे कभी? माँ जी साफ़ कर देंगी। कृष्ण ऐसे बोहोत कठोर हैं। देख लीजिये आप, गीता बोलने के बाद क्या बोले अर्जुन को। नहीं सर्वधर्मान नहीं। किसको किसको नहीं बोलना है गीता। बोले हैं न। 

नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन - भगवतगीता १८ ६७ 

अर्जुन, जो तपस्वी लोग नहीं हैं उनको गीता नहीं बोलना है। जो मेरा भक्त नहीं है - अभक्तया जो मेरा भक्त नहीं है उनको गीता नहीं बोलना है। मां योऽभ्यसूयति - जो मुझे इर्षा करता है उनको गीता नहीं बोलना चाहिए। अरे बोलना नहीं चाहिए, नहीं चाहिए, बोल क्यों दिए आप? सबके सामने बोल दिए। अर्जुन को बोल दिए। बोल रहे हैं अर्जुन को। जैसे दसवीं के प्रश्न लीक होने पर बोलते हैं लीक हो गया। जितना शास्त्र हैं न, ऐसे लीक हो गया भक्त के पास। और भक्त उसको लीक कर देते हैं। ठाकुर जी सोच रहे थे में गीता बोल रहा हूँ किसको? अर्जुन को। उनको पता नहीं था की हमारे पास आ जायेगा। आप बुरा मात मानिये। आप देख लीजिये वह श्लोक। १८ वे अध्याय में है न। 

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।

न चाश‍ुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥ — भगवतगीता १८ ६७

नातपस्काय - जो तपस्वी नहीं है। जो तप नहीं करते। जो मुझे इर्षा करते हैं उनको गीता नहीं बोलना है। इससे पता चलता है ठाकुर जी सिर्फ अर्जुन के लिए बोल रहे थे, लेकिन लीक हो गया। उनको पता नहीं था की व्यास देव इधर हैं। पता नहीं था। और सिर्फ व्यास देव नहीं, व्यास देव ने कृपा दे दिए एक भक्त को। संजय को। उधर वो पूरा कैमरा है, जिसमें बिजली की कोई जरूरत नहीं है। फोटो खिंच रहे थे सब। दोनों श्रोता एक बराबर सुन रहे थे। देखो अंतर कितना बड़ा है। अर्जुन जैसे सुन रहे थे, धृतराष्ट्र भी सुन रहे थे न। बराबर रिले हो रहा था न। कृष्ण जो बोल रहे थे वे तक्षण उसको बोल रहे थे। अंतर कितना है। 

में यही बोल रहा था की देखो कृष्णा कितने सशर्त हैं। एकादश स्कन्द में जाईये आप, भागवत पढ़ लीजिये। ठाकुर जी उद्धव को उपदेश देने के बाद फिर यही शर्त लगा रहे हैं। उद्धव ये सबके लिए नहीं है। अभक्त के लिए नहीं है, इसके लिए नहीं है, उसके लिए नहीं है। तो क्यों बोल रहे हैं आप? सबके लिए नहीं है। शर्त आ गया ठाकुर जी का। साफ़ नहीं करेंगे ठाकुर जी। कृष्ण ऐसे नहीं हैं। तुम साफ़ सुथरा होके मेरे पास आओ। भीतर जो गन्दगी है, उसको बहार निकालो, मुझे प्रेम करो, मेरे पास आओ। बड़े लोग क्या करते हैं? आपके शहर में बड़े लोग नहीं हैं? वे गंदे लोगो को पूछते हैं? द्वार के बहार निकल देते हैं। जब कोई धनि, साफ़ सुथरे होकर बड़े बड़े वाहन से आते हैं, तो सुरखा कर्मी उनके लिए द्वार खोल देते हैं। वे सुरक्षा कर्मी को निर्देश देते हैं - उनके लिए द्वार खोल दीजिये। कृष्ण ऐसे हैं, बड़े आदमी हैं, जो साफ़ सुथरा हैं, बड़े भजन वाले हैं, उनको बुलाते हैं। हम लोग को क्या करेंगे? हमको अनुमति ही नहीं है। सुरक्षा कर्मी ही नहीं छोड़ेंगे। तो इसलिए यह गौर अवतार जो हैं, माँ की तरह है। माँ की तरह साफ़ सुथरा करते हैं। गौर इसलिए हमारे इष्ट हैं। गौर नित्यानंद का भजन करना चाहिए। प्रेम से। जिन लोगो का भजन नहीं होता है, मति चंचल होता है, ममता नहीं बढ़ता है, भजन भी चलता है, दीक्षा ले लिए हैं, गुरु कृष्ण से ममता नहीं होता है, उनको बार बार महाप्रभु नित्यानंद प्रभु को प्रार्थना करना चाहिए। 

हम भजन गा रहे थे न, परम करुणा, इसमें दूसरी पंक्ति में क्या है - भज भज भाई चैतन्य निताई, सिदृढ़ा विस्वास, इतना योग्यता चाहिए। कितना सुन्दर भजन है, लोचन दास लिख रहे हैं। विश्वास कैसा होना चाहिए - सिदृढ़ विश्वास। भज भज भाई, चैतन्य निताई, सिदृढ़ा विस्वास करि। विषय छाड़िया से रसे माजिया, मूखे बोलो। ये रास है इसमें। गौर नित्यानंद के भजन में रस है। सुसक्ता नहीं है। तर्क पन्था ये नहीं है। तार्किक रवैया जो है, तर्कशील रवैया जो है, ये हमारा नहीं है। सबके चरण कमल को हम पकड़ लेंगे - भाई तुमको जो करना है तुम करो। मुझे तो सेवा करना है, मुझे रस लेना है जीवन में। हम लोग का पथ यही है। गौर निष्ठ होना चाहिए। और महाप्रभु क्या हैं? महाप्रभु यही हैं। 

प्राण न करीलो मरे, किसको नहीं मारे हैं। अस्त्र नहीं है? चैतन्य महाप्रभु का अस्त्र है? नहीं है। अस्त्र नहीं है। पापी पाषंडी किसको नहीं मारे हैं। लेकिन अंतर में जो वृति है न, पाप क्यों करते हैं? अंतर का वृति। दुरात्मा वृति है न हम लोगो का। इसलिए उनका अस्त्र यही है - हरिनाम अस्त्र। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। कोई भक्त प्रश्न करेंगे - ठीक है हरिनाम अस्त्र है, में जाप कर रहा हूँ, फिर क्या हो रहा है? मेरा अंतर साफ़ क्यों नहीं हो रहा है? इसलिए हम कल सुन रहे थे न। जैसे कप्तान लोग, बड़े जनरल लोग, हर समय सन्देश डालते है। किसको? - सैनिक लोग, जो सीमा पर हैं। तुम ऐसा करो, तुम वैसे करो, इससे मानसिक बल मिलता है। हमको आचार्य लोगो की वाणी बार बार श्रावण करनी चाहिए। गुरु आचार्य लोगो का वाणी, इससे मानसिक बल बढ़ता है। क्यों मानशिक बल जरूरत है? 

विषय, हमारा जो जन्म हुआ है, किस से जन्म हुआ है? बुरा मात मानिये, में खुला आदमी हूँ, बोल देता हूँ। में ब्रह्मचारी लोगो को यही समझाता हूँ, भाई देखो तुम जो सोच रहे हो न की ये बड़ा कष्ट है, ऐसा है, देखो हमारा जन्म किसी ऋषि मुनि से हुआ है क्या? हमारे पिताजी, माताजी जो जन्म किये हैं, वो क्या मंदिर गए, ठाकुर जी को बोले मुझे एक लड़का देदो, तुम्हारे जैसा लड़का? वो लोगो ने भोग किये और हमको पैदा किये। उनकी काम भावना से हमारा जन्म हुआ है। ये खुला तथ्य है, आप बुरा मात मानिये। जैसे आज कल लोग विवाह कर लेते हैं, भोग कर  लेते हैं, तब लड़का या लड़की आ जाता है। हमारे पिता माता ऐसे ही किये हैं। तो हमारा क्या दोष है? तो ये तो है भीतर। हम क्या कर सकते हैं? दुखी बनने का क्या कारन है? लेकिन हमको इसको छोड़ना है। मन में जो प्रभाव, भावना है न अनादि काल से - विषय छाड़िया, हमको छोड़ना है? कैसे छोड़ सकते हैं? बल कहाँ है? मन में। ये और कुछ नहीं बस एक मानशिक रोग है। 

विषय जो चीज़ होता है न - ये मेरा धन है, ये मरा पति है, मेरा पत्नी है, मेरा लड़का है, ये एक मानशिक चीज़ होता है। मन अनुकूल समझता है तो प्यार लगता है। मन प्रतिकूल हो जाता है तब? जो तलाक वगैरह होते हैं, पहले ऐसे बोलते हैं न, में बोहोत प्रेम करता हूँ, बोहोत प्रेम करता हूँ। कहाँ गया तुम्हारा प्रेम? वह प्लास्टिक को प्रेम करते थे। मोबाइल को तुम प्रेम करते थे। बोलते थे न, वह सन्देश डालते थे - में आपको प्रेम करता हूँ, कहाँ गया आपका प्रेम? वह मोबाइल में हैं न। तुम्हारा प्रेम कहाँ है? वह प्लास्टिक में है। तुम जिसको बोल रहे थे वह भी उधर ही है। गलत नहीं है। समझ रहे हैं न? वह प्लास्टिक में है, फाइबर में है। मोबाइल में है। उस समय क्यों अच्छा लगता था? में यही बिंदु पर बोल रहा था, मन अनुकूल लगता था। यह मानसिक है। ये सब जितना विषय का चीज़ होता है न, यह मानसिक रोग है। ये सूक्ष्म चीज़ होता है। इसलिए आचार्य लोग जो आये हैं न, मानसिक अनुमान को दूर करने के लिए आये हैं। इसलिए हम सिद्धांत सुन रहे हैं। ये कुछ नहीं है, विषय में कोई प्रेम नहीं है, ममता नहीं है, कोई बल नहीं है। ये एक अनुमान निर्मित करता है। वही लड़का जब छोटा होता है कितना प्रेम लगता है। पिताजी, माताजी, उसके पीछे दिन रात भागते हैं, बिमा वगैरह बना लेते हैं। थोड़ा बड़ा हो जाता है, तो बोलते हैं, ये मेरा लड़का है क्या? ये कैसा लड़का है, मेरा बात नहीं मानता है, क्यों ऐसा लड़का है। देखो मन प्रतिकूल हो गया। 

तो विषय क्या है? विषय को छोड़ना मुश्किल नहीं है, लेकिन ये पकड़ लिया है न। अनादि काल से जिव को पकड़ लिया है। छुड़वाने के लिए हमारा ताकत ही नहीं है। अनुकूल समझ रहे हैं। और कृष्ण को - आनुकुल्येन कृष्णनु- शीलानां भक्तिर उत्तम (चैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९ १६७ )। इसलिए अनुकूल शब्द लगा है। कितना सुन्दर शब्द लगा है - आनुकुल्येन कृष्णनु- शीलानां। कैसे कृष्ण को भजन करना चाहिए? आनुकुल्येन कृष्णनु- शीलानां। यह राधा गोपी लोग, उन लोग का जो भजन है, सेवा है, वह आनुकुल्येन कृष्णनु- शीलानां। विषय का गंध नहीं था। कुछ नहीं था। हम लोगों का मानक यही है। ये विषय जो चीज़ है, विषय छाड़िया, से रसे माजिया। रस है। भजन में रस है, नाम में रस है, सेवा में रस है। ये गौड़ीय परंपरा में जितना, जैसे देखिये दूसरा परंपरा में जाइये, उसमें सुबह उठो, ये करो, वह करो, हम लोगो का वैसा नहीं है।

हमारा दो काम बड़ा काम होता है - विग्रह सेवा, अच्छे से ठाकुर जी का श्रृंगार बनाओ और सजाओ। और अच्छा खाना पीना दो, उनके सामने नाचो। त्यौहार में हम क्या करते हैं? शादियों में क्या करते हैं? अच्छा खाना पकाते हैं, और नाचते हैं। यही काम करते हैं न, और क्या है? त्यौहार जो होता है, शादी वगैरह जो होता है, उसमें क्या होता है? अच्छा खाना बनाते हैं, खाते हैं और नाचते हैं। वह लोग तो इतना खा लेते हैं की और नाचते नहीं हैं। हमलोग ऐसे नहीं है। हमलोग को प्रसाद लेना है, और नृत्य करना है, और ठाकुर जी को अच्छा भोग देना है। गोलोक वृन्दावन में यही चलता है, वहां प्रचार वगैरह कुछ नहीं है। उधर यही प्रचार है। में यही कहता हूँ, देखो हम लोग जो प्रचारक प्रचार करते हैं न, हमलोग अगर उधर जायेंगे तो हमको बोलेंगे महाराज तुम बोहोत बात बोले हो, इधर झाड़ूदार पहले बनो। बोहोत कुछ तुम बोले हो, पर कुछ किये नहीं हो, तो पहले तुम झाड़ूदार बनो इधर, झाड़ू लगाओ। उधर क्या करना है हम लोगों को। भाई रसिक बनना है न। इधर थोड़ा सा रस ले जाओ। विषय को छोड़ना है, और विषय को छोड़ने के लिए हमारा बल नहीं है। 

इसलिए बार बार सुनना चाहिए, आचार्य लोगो की सेवा, आचार्य लोगो का जो वाणी है, इसमें बल आता है। और मानसिक जो विकार हो गया है न, ये विषय है, ये सभी, इसको अनुकूल समझ रहा है मन, विषय को। ये अनुकूल नहीं है। अनुकूल कृष्ण हैं। कृष्णनु- शीलानां। ये शब्द ब्रह्म है न, आचार्य लोगों के वाणी से ये प्रकट होता है। कृष्ण ही अनुकूल हैं, आज से कृष्ण का ही में सेवा करूँगा, विषय का नहीं। आचार्य निष्ठ होना चाहिए। उसके बाद गौर नित्यानंद निष्ठ। गौर और नित्यानंद। ये दोनों का करुणा क्या बोले हम। 

पसु पाखी झुरे, पशान विदारे, 

सुनि' जनर गुण-गाथा

दयालु हैं। कोई शर्त नहीं है। जैसे में बोल रहा था न, भगवन कृष्ण का बोहोत शर्त है। पर गौर नित्यानंद का सिर्फ एक शर्त है। क्या है शर्त? पता नहीं नाम करने के लिए एक शर्त है - श्रद्धा। श्रद्धा मुले नाम दीतेचे, श्रद्धा मुले नाम दीतेचे निताई। महाप्रभु कुछ नहीं चाहते। श्रद्धा। फिर कोई प्रश्न करेंगे, श्रद्धा हम लोगों का नहीं है न, फिर भी गौर निताई एक मूल्य चाहते हैं न। श्रद्धावान नाम करना चाहिए। श्रद्धावान जन होये भक्ति अधिकारी। तो श्रद्धा हम लोगों का नहीं है। फिर क्या करेंगे हम? नाम कैसे करेंगे? इसलिए गौर से दयालु कौन हैं? गौर से दयालु नित्यानंद हैं। और नित्यानंद से दयालु और कौन हैं? गौर जन हैं। 

कीमद्भुतम गौरहरे. चरितं  

ततोधिकम तत प्रीयसैवा काना- ५० २८ 

गौर से अधिक दयालु। ततोधिकम तत प्रीयसैवा काना। जो गौर भक्त हैं। इसलिए हम क्या बोलते हैं? श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्री अद्वैता गदाधर श्रीवासादि गौर भक्त वृंद। देख लीजिये। प्रणाम तो पंच तत्त्व का है। अंतिम में क्या बोले - गौर भक्त वृन्द। ज्यादा दयालु हैं। दयालु हैं। गौर भक्त वृंद। बार बार हम प्रणाम करते हैं। 

आचार्य तीर्थं, विचार्य वेदं - परमांनद सरस्वती ये बोल रहे हैं। तुम चाहे बोहोत तीर्थ जाओ, ठाकुर जी का बोहोत दिन सेवा भी करो, विचार्य वेदं, बोहोत वेद, पुराण पर आलोचना करो, आलोचना पर्यालोचना करते हैं न लोग, अध्यन करते हैं। बिना गौर प्रिय पाद सेवा - अगर गौर भक्त का सेवा नहीं करते। यह गौर भक्त लोग का सेवा है, प्रभुपाद जी का सेवा है। ठाकुर जी का सेवा हम लोग नहीं करते। ठाकुर जी की सेवा क्या हम करेंगे? किसका सेवा हम कर रहे हैं? हमारा दर्शन बोहोत बड़ा है, सूक्ष्म भाव है। सेवा कृष्ण का, लेकिन हमारा शास्त्र बोलता है गुरूजी की सेवा करो। नहीं बोल रहे हैं?

गुरुशुश्रूषया भक्त्या सर्वलब्धार्पणेन च ।

सङ्गेन साधुभक्तानामीश्वराराधनेन च ॥ 

श्रद्धया तत्कथायां च कीर्तनैर्गुणकर्मणाम् ।

तत्पादाम्बुरुहध्यानात तल्लिङ्गेक्षार्हणादिभि: ॥  श्रीमद भागवतम ७ ७ ३० ३१

आपको पता है, भागवतम के सातवे स्कन्द में है न -

तत्रोपायसहस्राणामयं भगवतोदित: ।

यदीश्वरे भगवति यथा यैरञ्जसा रति: ॥  श्रीमद भागवतम ७ ७ २९ 

सातवे स्कन्द में है, प्रह्लाद महाराज बोल रहे हैं। नरनारायण ऋषि ने जो नारद मुनि को बोले थे, नारद मुनि प्रह्लाद को बोल रहे हैं। और प्रह्लाद बोल रहे है असुर बालकों को। जितना शास्त्र का सिद्धांत है, इन् दो श्लोकों में है। सातवे स्कन्द में प्रह्लाद महाराज की शिक्षा देख लीजिये। गुरुशुश्रूषया भक्त्या - प्रह्लाद ही बोल रहे थे। और पहले बोल रहे हैं, गुरु की सेवा करनी है। भक्ति में सेवा करनी है। तो क्या करना है फिर भक्ति में सेवा? गुरु के तो ४, ५ चेले हैं, तुम क्या सेवा कर सकते हो? कोई कपडा धो सकते हैं, कोई प्रसाद पका सकते है, कोई मालिश कर सकते हैं। तो आज काल हम क्या गुरु की सेवा करें, इतने चेले हैं? क्या है गुरु की सेवा? अरे भाई सब गुरु की सेवा है। यह मंदिर का जो सेवा है, जैसे पुजारी लोग अर्चन करते हैं न, पहले किसको अर्चन करते हैं? गुरूजी को। ठाकुर जी किसके हैं? मंत्र किसके हैं? तो सेवा किसका होगा? गुरु का। गुरु सेवा कैसे हम बोलते हैं, यह भगवत सेवा है। यह दर्शन को लेके हम जीते हैं। सेवा तो भगवन की कर रहे है, पर गुरु सेव क्यों बोला जाता है? जैसे गोलोक वृन्दावन में सेवा किसका होता है? कृष्ण का। लेकिन एक को छोड़ के कृष्ण का सेवा नहीं होता है।  किसको? राधारानी को छोड़कर। ललिता, विशाखा, कोई भी जाते हैं न, सेवा राधारानी के माध्यम से ही होता है। इसीलिए ये जो भाव है, इसलिए हम गुरु सेवा बोलते है। भाव। हमारा भाव है। में सेवा कर रहा हूँ कृष्ण के एक शुद्ध भक्त के लिए, एक आनुगत्य के लिए। ये शब्द है गौड़ीय में। 

भजन क्या है, और भजन क्या नहीं है, पता है आपको? जिस भजन में शुद्ध भक्त का आश्रय नहीं है, आनुगत्य नहीं है, वह भजन नहीं है। यह हमारा दर्शन है। गुरु का आनुगत्य नहीं है। कोई सोचते हैं में वृन्दावन जाऊंगा। वृन्दावन में भजन करूँगा। वृन्दावन में भजन करोगे या अच्छा से जियोगे तुम। तुम जीने के लिए वृंदावन जा रहे हो? “झमेला” झमेला बोलते हैं हिंदी में?  झमेला मुक्त जीवन। बोहोत भक्त लोगो के संग में रहने से उनका मानशिक प्रभाव पड़ता है। में अकेले रहकर भजन करूँगा। आप अकेले रहकर भजन करने वाले हो? जो भजन करने वाले है, वह कर लेंगे अकेले? जो वास्तव में भजन करने वाले हैं, वह आये हैं और सोसाइटी तैयार किये हैं। भजन करने वाले प्रभुपाद जी हैं न। वह संग पैदा किये हैं, क्यों? कलयुग में संग शक्ति है। अकेले भजन नहीं होगा, क्या भजन करेंगे, मन में विषय है न। 

हमारे गुरुदेव कहा करते थे, तुम जहाँ भी जाओ, तुम्हारा पागल मन तुम्हारे साथ है। तुम्हारा पागल मन जहाँ जायेगा वहीँ कमाल करेगा। हम सोचते हैं यहाँ दिक़्कत है, अरे दिक्कत तुम्हारे मन के भीतर है, उसको निकालो। ये पागल मन का काम है।  वह साथ में है। कर्मा फल कहाँ जाता है? हम जहाँ जाते हैं, कर्म फल भी जाता जाता है उधर।  समझ रहे हैं न आप? घर में आप रहेंगे, बोलेंगे मंदिर में ऐसा हो रहा है। भाई तुम घर में जाओ, या मंदिर में जाओ, कर्म फल तो भजन में नस्ट होता है न। समय, स्तान और परिस्तिति से कर्म फल का कोई मतलब नहीं होता है। इसको मन का समायोजन बोलते है। समझ रहे हैं न आप। मन का समायोजन बोलते हैं। इधर अच्छा नहीं लगता, उधर जाऊँ, उधर अच्छा नहीं लगता उधर जाऊँ। ये मन का समायोजन है। भजन तो अलग चीज़ होता है। निष्ठता से, गुरु की सेवा से, आनुगत्य। में यही बात बोल रहा था, जहाँ आनुगत्य नहीं है, वहां भजन नहीं होता। किस के बल पर, मंत्र किसका है? नाम गुरूजी ने दिए हैं, मंत्र गुरूजी से दिए हैं, और जहाँ रह रहे हो, खाना पीना कपडा जो है, कानपूर में एक कमरे में जो आप रह रहे हैं, एक कमरे का भाव कितना है देख लीजिये। तीन वक़्त का प्रसाद आप ले रहे हैं, देख लीजिये। एक प्लेट तो सौ रुपये का है, आप देख लीजिये। तो देख लीजिये आप। तो श्रम कितना कर रहे हैं? कितना कमा कर देते है आप? आप लोगों को पता नहीं है हमलोग ऐसे जिए है। इसलिए हम बोल रहे हैं। हम सूखा सूखा बात नहीं बोल रहे हैं। यह सुनने के लिए आपको कड़वा लगेगा पर ये सच बात है। हमारे गुरुदेव हम जब पुस्तक वितरण में जाते हैं न, जब वापस आते हैं, हमारे लेखपाल जो थे, वे गुरुदेव को बोलते थे ये भक्त इतना पुस्तक वितरण किये हैं, इसका मुनाफा इतना है, और इतना प्रसाद लिए हैं, मंदिर को क्या दिए है।  आप पूछ लीजिये। हमलोग ऐसे जिए है। और गुरु जैसे बुलाते थे हमको, आप नेता हो न, वह भक्त इतना पुस्तक वितरण किये हैं, उससे मुनाफा इतना हुआ, तो प्रभुपाद के लिए क्या किये वह लोग, बस खा लिए सब। जितना कमाए सब खा लिए। उनको बोलो ज़्यादा सेवा करना है, पुस्तक वितरण करना है। 

भजन ऐसे ही हो जायेगा? भजन में जो सुख, रस है वह तुमको पता होना चाहिए। ये सोसाइटी नहीं है, सरकार के लिए, आम जनता के लिए ये एक सोसाइटी है। हमारे लिए यह कृष्ण का घर है। गुरूजी का घर है, प्रभुपाद जी का घर  है। तुम कहाँ रह रहे हो? घर में क्या होता है? घर नहीं बनाये आप, घर बना लीजिये।  जो गृहस्त लोग घर बनाये है, अगर शौचालय में कुछ हो जाता है, थोड़ा रंग निकल जाता है, बोलते हैं मेरा घर ऐसा हो गया। और मंदिर में, अगर बत्ती जलता है तो जलते रहता है। पंखा चलता है तो चलते रहता है। ये किसका काम है? ये सुरक्षा कर्मी का काम है। ये सुरक्षा कर्मी का काम है? फिर हम कौन हैं? मंदिर किसका है? प्रेसिडेंट का है। में भी प्रबंधन में था, मुझे पता है। भक्त लोग सोचते हैं मंदिर चलने वाले प्रभंधक हैं। भाई ये तुम्हारा घर है, ये प्रभुपाद जी का घर है, ठाकुर जी का घर है। में यही बोल रहा था, हम गौर नित्यानंद लीला क्या सुनेंगे हमारा आनुगत्य नहीं है। जब गुरुवा आनुगत्य नहीं है, आचार्य आनुगत्य नहीं है, तो बल नहीं मिलता है। भजन का बल नहीं मिलता है। भजन चलता है, प्रचार चलता है, बल कहाँ है मुझे दिखाइए। एक आदमी प्रभुपाद जी देख लीजिये क्या किये हैं। और आज हम करोड़ों भक्त है, हमारे भीतर उत्साह नहीं है। करने के लिए कुछ नहीं है। 

कुछ लोग देश भक्त होते है। जैसे मोदी। जो भक्त होते हैं, भक्त होने से पहले उनमें उत्साह होना चाहिए। हम कृष्ण के भक्त हैं, हमारे मन में बिक्लुल उत्साह नहीं है। फुर्ती रहना चाहिए। क्यों नहीं है? इसका कारण यही है। हम नहीं सोचते हैं में किसका हूँ, में गुरूजी का हूँ, में आचार्य जी का हूँ। उनके कृपा से आज हम जी रहे हैं। कोई भी इस्कॉन में आप रहिये, कोई दिक्कत नहीं है। आप इधर नहीं रहते, कहीं भी रहिये। जहाँ भी रहिये, उसको घर बनाइये। तब आपका भजन होगा, आप सुख में रहेंगे। यह सरल बात में आपको बता रहा हूँ। भजन करने के लिए में ये बोल रहा हूँ, जीने के लिए नहीं। जीने के लिए तो आप कहीं भी जी लेंगे। भाई तुम जहाँ जाते हो वहां आचार्य लोगों के ठाकुर हैं के नहीं? प्रभुपाद जी के दूसरे दूसरे शिष्य लोग मंदिर बनाये हैं की नहीं? उनका समर्पण और प्रेम उधर है की नहीं? उधर ठाकुर जी है की नहीं? 

गाओं में में बचपन से देखा हूँ, में क्या नित्यानंद कथा बोलूंगा, में इधर पहली बार आ रहा हूँ। मुझे पता नहीं आप को ये सब दर्शन को लेंगे की नही। मेरी तो आदत है में जहाँ जाता हूँ इसको पहले बोलता हूँ। गाओं में लोग पहाड़ से पत्थर ले आते हैं, गाओं का प्रवेश द्वार होता है न, वहां पेड़ के निचे रख लेते हैं और उनको पूजा करते हैं। उनको ग्राम के देवी बोलते हैं, ये ग्राम के देवी हैं। अरे पत्थर को देवी मान लेते हैं। एक इस्कॉन मंदिर में कितने करोड़ लोग एक साल में आते हैं देख लीजिये। और वैष्णव प्राण प्रतिष्ठा किये हैं। दिन रात हम पूजा कर रहे है। कितने लोग प्रणति कर रहे हैं, विनती कर रहे हैं, प्रार्थना कर रहे हैं। उधर ठाकुर नहीं हैं? उनका घर नहीं है? और उधर ही हम रह रहे ह। भावना ऐसा होना चाहिए। में कहाँ रह रहा हूँ? ठाकुर जी के गोद में, उनके घर में। में आने से पहले ये बोल रहा था, जैसे कभी कभी भक्त लोग सोचते हैं न, चले जाते हैं वृन्दावन में रहते हैं। बोलते हैं में राधारानी के पास, राधारानी के घर के आश्रय में हूँ। 

भाई तुम राधारानी के आश्रय में हो, हम राधारानी के भक्त के आश्रय में हैं। जो इस्कॉन के वह ये सोचना चाहिए, अगर उनका भाव है। भगवान् के आश्रय में हूँ, उनके घर में हूँ। वह जो भी करेंगे। भावना को शुद्ध करना चाहिए। आनुगत्य में रहना चाहिए। आश्रय और आनुगत्य जितना दृढ होता है, भजन में उतना बल होता है। समझ रहे हैं न आप। आश्रय एक है, और आनुगत्य एक है। आश्रय का मतलब अंग्रेजी में बोलते हैं डिपेंडेंसी। आश्रय, गुरूजी का आश्रय - यस्य प्रसादात भगवत प्रसादात। आचार्य लोगो के आश्रय में रहना चाहिए। आश्रय में। वो अगर मुझे फेंक देंगे तो में मर जाऊंगा। कहाँ जाऊंगा? मेरा तो कोई बल नहीं है, कर्मा नहीं, ज्ञान नहीं, कृष्ण भक्ति नहीं। मेरा तो न कर्म है, न ज्ञान है, न कृष्ण भक्ति है। उन् लोगों के बल पर, उनकी कृपा से में जी रहा हूँ। ये आश्रय है। समझ रहे हैं ।आप कितना निर्भर करते हैं, उनको पता है। वो परमात्मा के प्रकाश हैं। गुरु लोग परमात्मा के प्रकाश है।  

शिक्षा-गुरुके ता' जानी कृष्णेर स्वरूप 

अंतर्यामि, भक्त-श्रेष्ठ, - एइ दुई रूपा — चैतन्य चरितामृत अदि लीला १ ४७ 

जीवे साक्षात नहीं ताते गुरु चैतन्य-रूपे 

शिक्षा-गुरु हय कृष्ण-महंत-स्वरूप — चैतन्य चरितामृत अदि लीला १ ५८ 

ये चैतन्य चरितामृत में है। कृष्ण जिव को सहायता करने के लिए दो रूप से प्रकट होते हैं। कितने विस्तार हैं? अंतर में परमात्मा स्वरुप से रहते हैं। लेकिन हमारा मन तो विषयासक्त है न। परमात्मा जो बोलते हैं, वो सोचते हैं ये मन की बात है। और मन जो बोलता है वह सोचते हैं ये परमत्मा की बात है। 

कभी कभी में ब्रह्मचारी लोगों के लिए बोलता हूँ, भक्त लोग जब में घरमें थे न, इस्कॉन में जुड़ने से पहले बोलते थे घर अच्छा नहीं है। ये ठाकुर जी की इच्छा है, घर छोड़ देना है। बार बार बोलते हैं, मुझे कुछ प्रेरणा मिलता है परमात्मा की घर छोड़ देना है। फिर मंदिर आ जाते हैं। फिर कुछ दिनों के बाद, अभी मंदिर अच्छा नहीं है, घर जाना है। तो अभी कौन बोल रहा है, उस समय कौन बोल रहा था। मंदिर आने के लिए कौन बोल रहा है? और जाने के लिए कौन बोल रहा है? देखो, परमात्मा क्या बोल रहे हैं और मन क्या बोल रहे हैं, हमको पता नहीं है। ठाकुर जी बोल रहे हैं - ये तो बिच में फस जायेगा। मेरी बात को मन की बात मानेगा और मन की बात को मेरी बात समझेगा। ये नहीं चलेगा। में तो भीतर हूँ, पर मुझे बहार जाना पड़ेगा। इसलिए वो बहार आये। क्यों आये, सिर्फ पुस्टि के लिए। तो भीतर जो सोच रहे हो, वह सही है या गलत है? भक्त अंतर्यामी भक्त श्रेष्ठ। अंतर्यामी रूप से उसके भीतर से। और भक्त श्रेष्ठ - बहार से। ये दो रूप है ठाकुर जी का। ये दो स्वरुप है। फिर दोनों हो जाने के बाद भी हम क्या करेंगे? 

ओड़िआ में एक कहावत है - जो लोग हमको जिला रहे हैं, उनको हम मार रहे हैं। काट रहे हैं। हमारा आदत ऐसा है। साधु गुरु लोग आये हैं हमको जिलाने के लिए। हम मर रहे हैं, पल पल पर। लेकिन हमारी इर्षा उनके ऊपर है, कर्मी के ऊपर नहीं है। समझ रहे हैं न। जो हमको जिला रहे हैं, हम उनके दोष देख रहे हैं। ”ये जो बोले हैं, सही है क्या? “, “प्रभुपाद जो बोले हैं सही है क्या?  हर समय मन घुमाता है हमको। इसलिए ठाकुर जी ने सोचा - में भीतर हूँ, बहार आचार्य हैं, फिर भी पुस्टि के लिए एक और चीज़ चाहिए। मेरी वाणी चाहिए। 

शास्त्र-गुरु-आत्मा-रूपे अपनारे जनाना 

'कृष्ण मोरा प्रभु, त्राता' - जीवेर हय ज्ञान — चैतन्य चरितामृत मध्य लीला २० १२३ 

कृष्ण ने सोचा, देखो अभी दो से काम नहीं चलेगा। अभी और एक जोड़ना है। क्या? “शास्त्र”। शास्त्र स्वरुप से प्रकट हुए।  अंतर्यामी रूप से हैं, और भक्त श्रेष्ठ। तीनो रूप है ठाकुर जी का। हमको मदत करने के लिए। और हमारी दुश्मनी किस से है? असल चीज़ से हमारी दुश्मनी है। समझ रहे हैं? शास्त्र से तो दुश्मनी नहीं है। शास्त्र जो बोले हैं - हाँ ठीक है। तो भूल कहाँ है? अगर शास्त्र जो बोले ठीक है, तो गलत कहाँ है? गलत गुरु से हम देखते हैं। जो पुस्टि देने वाले हैं। ये ईर्षालु मानसिकता हो जाता है। क्यों होता है? इर्षा सुक्ष्म रूप से होता है और स्थूल रूप से होता है। जो हमारे भलाई के लिए बोल रहे हैं, उसे हम ग्रहण नहीं कर रहे हैं। ऊपर से हाँ बोल देते हैं, भीतर नहीं घुसता है। क्यों नहीं घुसता है? हमारा विचार अलग है। हमारा इच्छा अलग है। अलग कामना है न, इसलिए नहीं घुसता है। इससे धीरे धीरे इर्षा की मानशिकता हो जाती है, वैष्णवों के ऊपर।  देख लीजिये आप। ये सूक्ष्मा तत्त्व है। समझ रहे हैं न आप। 

इर्षा कर्मी के ऊपर उतना नहीं होता है, जितना जो हमारे भलाई के लिए आये हैं, गुरु आचार्य, उनके ऊपर हो जाता है। अलग जो कामना है न, दूसरा जो भोगने की इच्छा है न, हमारा जो स्वतंत्र वृति है, वह जब प्रमुख हो जाता है। और वो सोचता है, यही मेरा भक्ति है, मुझे यही करना है।और आचार्य की वाणी, शास्त्र की वाणी पर ध्यान नहीं देते हैं, तब ईर्षालु मानसिकता हो जाता है। इसी को ही पतन बोलते हैं। और पतन क्या है? पतन क्या है आप क्या सोच रहे हैं? भजन तो चलता है, फिर पतन क्या है? शादी कर लेना पतन है? हाँ ठीक है, शादी करना है कर लो। तो असल परिवर्तन क्या है, ठीक है। जो पतित अवस्ता बोलते हैं न, यही पतित अवस्ता है। भीतर से साधु गुरु का आनुगत्य हम बिकुल छोड़ दिए है। और ऊपर से पूजा चल रहा है। समझ रहे हैं न आप? जैसे दुर्योधन का था। ऊपर से कृष्ण को दिखाने के लिए कितना रसोइया लगाकर, खाना पकाया। भीतर से बिलकुल श्रद्धा नहीं था। ठाकुर जी को पता चल गया। “ देखो ये क्या कर रहा है, दोगला इंसान है “l भजन नहीं होता है। ये पतित अवस्ता है। 

आचार्य आनुगत्य - हमारे जीवन में सबसे बड़ा तपस्या यही है। क्या है सबसे बड़ा तपस्या? भगवन को प्राप्त करना ये बड़ा तपस्या नहीं है। वो तो बड़े आदमी है। केवल आचार्य की स्तिति क्या है, स्थान क्या है। सुबह सुबह हम पढ़ रहे हैं न ठाकुर जी के सामने, साक्षात् हरित्वेन समस्त सास्त्रे। अरे मन को बोल रहे हैं हम। ये मेरा बात नहीं है। यह समस्त शास्त्रे बोले रहे हैं। कौन बोल रहे हैं - विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर। साक्षात् हरि। हरि देव वैसे गुरु देव। गुरु नहीं ये देव हैं, गुरु स्वरुप में आये हैं।  भगवान् की शक्ति पकड़ कर आये हैं। साक्षात् हरि, फिर बोल रहे हैं, क्यों साक्षात् हरि? अगर मन पूछेगा, क्यों साक्षात् हरि? भगवान् तो कृष्ण हैं। यह तो एक आदमी हैं। नहीं, किन्तु प्रभोर या। ये भगवान् से सभसे निकटम और प्रियतम हैं। हो गया न। जो सबसे निकटम और प्रियतम हैं, उनकी समान शक्ति होती हैं। नरेंद्र मोदी के सबसे पास जो रहता है न, वह जो बोलेंगे मोदी वो करेंगे। जैसे बड़े बड़े अधिकारीयों के पास नौकर लोग रहते हैं न, उनकी उतनी शक्ति होती हैं। “ठाकुर सर, इसका बिल थोड़ा पास कर दीजिये”, “हाँ ठीक है”। हमलोग कैसे जायेंगे ठाकुर जी के पास? भजन के बल पर? भजन के बल पर? कौन सा बल है हमलोग का? 

आश्रय लय भजे 

ता'रे कृष्ण नहीं त्याजे 

अरा सबा मारे अकराना — नरोत्तम दस ठाकुर द्वारा रचित भजन “ठाकुर वैष्णव पदे”

मर जायेंगे भाई, तर जायेंगे क्या? तरेंगे नहीं, मरेंगे। आश्रय लय भजे। आश्रय हर समय लेना चाहिए। निर्भरता। बोलते हैं में नरक जाऊंगा तब भी गुरूजी मुझे उद्धार करेंगे। प्रभुपाद जी मुझे उद्धार करेंगे। में नौकर जैसा पड़ा हूँ। कुत्ते के जैसे पड़ा हूँ। में उनके किये कुछ करूँगा। “ता'रे” जिनका कृष्ण का अस्ताक्ति नहीं है उनको छोड़ देना है। ऐसे छोड़ नहीं सकते। कृष्ण है तो बलवान हैं, लेकिन वे दुर्बल हैं भक्त के पास। भक्त जो बोलेंगे वह करना पड़ेगा। आश्रय लय भजे ता'रे कृष्ण नहीं त्याजे अरा सबा मारे अकराना। नरोत्तम दस ठाकुर लिख रहे हैं। और सब मर जायेंगे। ये भजन करने वालो के लिए बोल रहे हैं, जिन लोगो का आचार्य आश्रय नहीं है। उपासना चल रहा है, भजन चल रहा है, लेकिन आनुगत्य नहीं है, आश्रय नहीं है। ये दिन पर दिन दुर्बल हो जायेगा। और ये दुर्बलता सिर्फ नहीं होता हैं, संदेह भावना से होता है। संदेह और समालोचना। समालोचना समझ रहे हैं आप? संस्कृत शब्द है। समालोचना ओड़िया में भी बोलते हैं हम। “गुरूजी क्यों ऐसे बोले” “गुरूजी ऐसे क्यों बोले हैं”, “गुरूजी उनको ऐसा सेवा क्यों दिए हैं”। दो चार मिल जाते हैं, बात करते हैं - गुरूजी ऐसा ठीक किये हैं? ऐसे नहीं करना चाहिए। ये दो चीज़ सबसे बड़ा खतरनाक होता है। मेरे दिल के अंदर आ गया, में नित्यानंद कथा क्या बोलूंगा। 

संसय और समालोचना। ये जो संदेह वृति है, और गुरूजी कृष्णा की प्रेरणा से जो कर रहे हैं, उसको बार बार मन में दोहराना, ये गलत है, ये सही है, ऐसा करना चाहिए, ऐसा नहीं करना चाहिए। ये दो चीज़ भक्ति को नस्ट करता है। बिलकुल उखाड़ देता है उसको। उखाड़ देता है बीज को। कभी संदेह नहीं करना चाहिए। बुद्धि से सब कुछ पकड़ में नहीं आता है। समझ रहे हैं न आप। बुद्धि से सबकुछ पकड़ में नहीं आता है। बुद्धि तो गुण के भीतर है न। आपका बुद्धि कितना है? गुण के भीतर है। ऊपर नहीं है। आप मेरी बुद्धि को पकड़ सकते हैं, लेकिन शास्त्र के बुद्धि को नहीं, व्यास के बुद्धि को नहीं, प्रभुपाद जी के बुद्धि को नहीं। इसलिए शास्त्र ने वाणी हमको दे दिए हैं। भाई तुम जितने बड़े हो, श्री गुरु के चरण पद्मा। ऊपर मत जाइये। समझ रहे है न। हम जो बोलते हैं न, श्री गुरु चरण पद्मा, इसका मतलब क्या है? भाई तुम पंडित हो, पीएचडी होल्डर हो, तुम बड़े एम् टेक, आई टेक वाले हो, बोहोत बड़े पदवी पर हो, अभी पढाई कर रहे हो, बहुत बड़े भक्त बन गए हो, लेकिन तुम्हारा स्तिति क्या है? दास तो बड़ा चीज़ हो गया। दास भी कभी कभी मालिक बन जाता है। दास नहीं, श्री गुरु चरण पद्मा, इसके ऊपर लक्ष रहना चाहिए। हमारा स्तिति यही है, चरण पर। ऊपर देखने के लिए, बुद्धि तो इधर है न, गुरु के बुद्धि को क्या हम मापेंगे। चरण पद्मा। भौंरा जैसे पद्म में रहता है न, वैसे हमारा मन वैसे चरण में। बड़े लोगों की बात है, बड़े लोगों को पता है, हम छोटे लोग हैं, चरण पर हमारा स्थान है। बस जी जायेंगे। ”क्यों” हर समय काम नहीं करता है। ”क्यों इससे प्रभुपाद जी बोल रहे हैं” क्यों इससे बोल रहे हैं, वो बड़े आदमी के पकड़ में आ जाता है, हमको सिर्फ ग्रहण करना है। ग्रहण करने की वृत्ति। ग्रहण करने की जो शक्ति है न, वह नस्ट हो जाता है। ग्रहण करने की वृत्ति कैसे नस्ट हो जाता है? समझ रहे हैं न? 

जो बालक है न, आप उत्तर प्रदेश से हैं? कहाँ से हैं? आंध्र से हैं न। आपको माताजी पिताजी ने सिखाया, तेलगु, आप पकड़ लिए, ग्रहण किय। ग्रहण करने की वृत्ति। जो आंध्र में पैदा होते हैं उनको ओडिशा में ले आओ, पिताजी माताजी अगर ओड़िआ की शिक्षा देंगे तब वह ओड़िआ बोलेंगे। ग्रहण करने की अगर वृत्ति है, ग्रहण का शक्ति है, तब तो वह ग्रहण कर लेते हैं न। भक्ति में यही नस्ट हो जाता है, दो चीज़ से। और वह जब नस्ट हो जाता है, आपका ह्रदय क्या हो जाता है? जैसे बोलते हैं डेजर्ट, बंजर। बंजर। बस और कुछ नहीं होता है। भजन चलता है, कीर्तन चलता है, प्रचार, सब सूखा रहता है। ”हाँ ठीक है, चल रहा है”। तो कहाँ हो तुम? मंदिर में हो या घर में? कहीं भी नहीं। कुछ भी भला नहीं लगता है। कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। ये हो जाता है। में व्यावहारिक चीज़ बोल रहा हूँ। बुरा मत मानिये। ये व्यावहारिक चीज़ है। ये दो चीज़ से। क्या? संदेह और समालोचना। आचार्य के वाणी को आप संदेह किये - प्रभुपाद जी ऐसे क्यों बोले? इतना बड़ा ऊँचा दर्शन था, राधा प्रेम है, ब्रज में ऐसा है। प्रभुपाद क्यों बोले हैं तुमको पता नहीं है। तुमको ग्रहण करना है। पहले तुम्हारा भलाई होगा मान लो। समझ रहे हैं न। ये उत्तम है या उत्तम नहीं है ये आपको कैसे पता चलेगा? आप पहले मान लो, करो, अगर नहीं हो रहा है तब बोलो ये उत्तम नहीं है। और हमलोग का क्या आदत है - करने से पहले ही पहले अस्वीकार कर देते हैं। 

प्रभुपाद जी जो बोल रहे हैं, उतना तुम किये हो क्या? आचार्य जो बोल रहे हैं, गुरूजी जो बोल रहे हैं वो आप नहीं किये हैं, वो सन्देश आते आते - अस्वीकार। भीतर घुसना नहीं चाहिए। वो विचार ठीक नहीं है। क्यूंकि हमारा अलग कामना है। यही दिक्कत है। संदेह और समालोचना दो जो चीज़ होता है न इसमें, में क्या बोल रहा था? डाउट और जजमेंट ये दो चीज़ में भक्ति तो नस्ट हो जाता है, और ये दो चीज़ घट जाता है। ग्रहण करने की वृत्ति तो नस्ट हो जाता है। कितना नस्ट हो जाता है इससे। आश्रय और आनुगत्य, ये दो चीज़ भी नस्ट हो जाता है। ये भी नस्ट हो जाता है। गुरु की उपासना हम करते हैं, गुरूजी का फोटो भी हमारे पास है, व्यास पूजा में भी हम भाग लेते हैं, समझ रहे हैं न, गुरु का मंत्र हर माला पर लेते हैं, लेकिन विश्वास नहीं है। ममता नहीं होता है। अपनापन नहीं होता है। अपनापन नहीं होने से भजन भी नहीं होता है। समझ रहे हैं न। किसको आप याद रख सकते हैं, जिसमें अपनापन है। मन जिसको अपना बना लिया - ये मेरा है। तब तो भजन होता है। 

इसलिए गौड़ीय सिद्धांत का जो तीन चीज़ होता है न, ये गौर नित्यांनद की दया से मिलता है। इसमें में बोल रहा हूँ, नित्यांनद प्रभुजी की क्या दया है। आप तो लीला सुनते हैं, बहुत लीला सुन लिए। क्या नित्यानंद प्रभुजी का दया है? क्यों नित्यांनद प्रभुजी को कृष्ण से, महाप्रभु से हम इतना प्राधान्य देते है? हमारा परिवार कौन हैं? परिवार पता है न आपको? हमारा सम्प्रदाय है ब्रह्म मध्य गौड़ीय सम्प्रदाय। हमारा परिवार - नित्यानंद परिवार। परिवार बोलते हैं। अद्वैत परिवार। वंशज, नित्यांनद वंशज। तो हमारा ये परिवार की परिभाषा है, या परिवार की संवाद है। आचार्य निष्ठता बोहोत जरूरत है, और नित्यानंद जी की कृपा से होता है। ठीक है ये श्लोक निकल लीजिये, कौन सा श्लोक है, में देख लेता हूँ। पढ़ना चाहिए। कहाँ है, हाँ। ९५ ९६ देख लीजिये। मिला आपको? ये महाप्रभु, ढूंढ लीजिये, ९५ ९६ पहला अध्याय।

दुइ भाई हृदयेर क्षलि' अन्धकार 

दुइ भागवत-संग करान साक्षात्कर — चैतन्य चरितामृत अदि लीला १ ९८ 

किन्तु ये दोनों भाई, भगवन चैतन्य और भगवन नित्यांनद ह्रदय के भीतर के अंधकार को भी नस्ट करते हैं। इसी तरह ये दो प्रकार के भावतों, भगवन से संभंधित व्यक्तियों या वस्तुओं से मिलाने में मनुस्य को सहायता करते हैं। 

गौर नित्यानंद की ये दया है। ९८ है। क्यूंकि पहले कृष्णदस कविराज गोस्वामी ने गौर नित्यानंद को सूर्य और चंद्र से उपमा दी है। सूर्य और चंद्र एक साथ में उदित होते है? नहीं होते है? सूर्य उग जाता है, हाँ, सूर्यास्त हो जाता है, तब चन्द्रमा उदित हो जाता है। है न। लेखिन ये दो भाई एक साथ में हैं। ये हमारा भाग्य है। गौड़ देश में, बंगाल में, महाप्रभु और गौर नित्यांनद प्रभु  ये दोनों आये हैं न। हमारा ये भाग्य है। एक साथ। दिन में क्या होता है? आज कल आ गया न गर्मी का दिन, दिन में क्या होता है? बोहोत तप्त। और चन्द्रमा का क्या शक्ति है? शीतल। लेकिन ये गौर नित्यांनद की करुणा है, हमलोग तो दुखी हैं। माया के ताप से हम दुखी हैं। दुःख का और पार नहीं है। कितना दुःख है जीवन में। और हमको सुखी करने के लिए आये हैं दोनों। और इधर सूर्य शब्द लगा है। सूर्य का क्या काम है? सूर्य का उपमा क्या है? ताप देने के लिए इधर नहीं है। सबको शुद्ध करने के लिए। ये काम किसका है? नित्यांनद प्रभुजी का। नित्यानंद प्रभुजी। चंद्र तो दोनों में लगता है। निताई चाँद बोलते हैं। निताई चाँद। और विशेष रूप से गौर चाँद। नित्यांनद।  नित्यानंद सूर्य जैसे हैं। सूर्य जैसे गन्दगी में किरण डालते हैं, साफ़ सुथरा कर देते हैं। हमारे भीतर। और नित्यांनद प्रभु की कृपा क्या है? वही। कैसे साफ़ करते हैं? वह मूल, आदि स्वरुप से गुरु तत्त्व हैं। बलराम, गुरु तत्त्व हैं। गुरूजी उनके विस्तार हैं। और गुरूजी दर्शन के माध्यम से, कथा श्रावण के शब्द ब्रह्मा के प्रकाश के माध्यम से, गुरूजी से जो शब्द ब्रह्मा की प्रकाश होते हैं, जो नित्यानंद प्रभु के प्रकाश विग्रह हैं न गुरु। वो शब्द ब्रह्म। जिव को सहायता चाहिए न। 

में जैसे पहले बोल रहा था न, मन बोल रहा है या आत्मा बोल रहा है, परमत्मा बोल रहा है, किस्में हमारा भलाई है हमको सूचना भी नहीं है, हमको पता भी नहीं है, दिशा भी नहीं है, कौन से दिशा में जाना है। चैत्य गुरु हैं भीतर, परमात्मा हैं न, वह चैत्य गुरु हैं। वो बोहोत कोशिश कर रहे हैं जिव को दिशा देखने ले लिए। भाई इस दिशा में जाओ। लेकिन हमारा सीकृति नहीं है। पहले जनम का सीकृति नहीं है। इसलिए विश्वास भी नहीं होता है। गुरूजी से मिल जाने के बाद, दीक्षा लेने के बाद देखिये एक गुरु हैं, कितने चेले हैं। गुरूजी एक बात बोलते हैं, सबका विश्वास क्या समान विश्वास होता है? नहीं होता है। क्यों नहीं होता है? गुरु तो एक है, उनकी वाणी तो एक है। एक के लिए शब्द ब्रह्म हो जाता है, दूसरे के लिए आम। गुरूजी जो बोले ये उपदेश है। और दूसरे के लिए शब्द ब्रह्म है। सीकृति का अंतर होता है। पार्थक्य होता है। और इसको बढ़ने के लिए ये सुयोग है। ये सेवा प्रकाश जो किये हैं न आचार्य लोगो ने, सरल भावना से सेवा कर लो। गुरूजी का सेवा कर लो। आनुगत्य में सेवा कर लो, तुम्हारा सीकृति बढ़ जाता है। तब तुम समझ सकते हो। हम जो सोचते है न की भुद्धिमता से सब समझ लेंगे, ये नहीं होगा भाई। ये काम नहीं है। ठोकर खा जायेंगे। गुरु परमत्मा के प्रकाश अगर हैं, तुम कैसे समझ सकते हो उनको? समझ सकते हो क्या? हमारा स्तर तो बुद्धि स्तर पर है, आत्मा स्तर पर नहीं है। फिर परमात्मा को कैसे समझेंगे? वो तो परमात्मा के प्रकाश हैं। भगवत शक्ति उनके माध्यम से काम करते हैं। तो कैसे समझ सकते हैं। अगर वही परमात्मा बुद्धि से जुड़ जाते हैं, तब आप समझ सकते हैं। परमात्मा आपको भुद्धिमता दे दिए। बुद्धि से सब काम नहीं होता है। बुद्धि सिर्फ एक चीज़ के लिए अच्छा है। बुद्धि से सिर्फ ग्रहण करो। मान लो, मान लो, मान लो, देखो, इसमें भलाई हो जाता है। 

में यही बोल रहा था, गौर नित्यानंद प्रभुजी। नित्यानंद प्रभुजी सूर्य जैसे हैं। और नित्यानंद प्रभुजी अदि गुरु तत्त्व हैं। उनके प्रकाश विग्रह आचार्य लोग हैं। और जो आचार्य लोग नित्यानंद प्रभु से, गौर नित्यानंद प्रभु से जुड़े हुए हैं न, उनके मुख से जो वाणी निकलता है, वह क्या है? शब्द ब्रह्मा है। देखो ये शब्द ब्रह्म क्या बोलते हैं? जिव का संशय, एक प्रश्न आया था न, मेरा विश्वास नहीं है तो में कैसे भजन करूँगा? मेरा श्रद्धा नहीं होता है। यही है उपाय। यही है उपाय। इसलिए प्रभुपाद ने अपनाये हैं - हर दिन भागवत सुनना है। यही उपाय है। गुरु मुख से जब सुनते हैं न, तो वह शब्द ब्रह्म श्रद्धा प्रकाश कर देते हैं। तब तो विश्वास हो जाता है। बुद्धि से काम नहीं होता है। शब्द ब्रह्मा है ये। और भीतर में जो भावना है, विषय भावना है, उसको दूर कर देते है, वो गुरु की कृपा है। नित्यानंद प्रकाश। कौन हैं? गुरु। 

दुइ भाई हृदयेरा क्षलि' अन्धकार। अंधकार है न। किन्तु ये दोनों भाई, सूर्य बहार से रहते हैं। ये जो सूर्य हैं न, वो भीतर नहीं जाते। भीतर जाते हैं? सूर्य उगता है तो लोग ज़्यादा पाप करते हैं। सूर्य क्या मदत करता है? रात होगा तो अच्छा, सो जायेंगे। चोर वगैरह दो चार आदमी कुछ खराब काम करेंगे। लेकिन सूर्य उगता है न, सब लोग लग जाते हैं। किसको ठगना है, कैसे ठगना है। सूर्य क्या उपकार करता है? 

ये भीतर जाते हैं। दुइ भाई हृदयेरा क्षलि' अन्धकार, दोनों भीतर में चले जाते हैं। उनका कृपा है। आचार्य के शब्द ब्रह्मा के माध्यम से। श्री विग्रह के सेवा के माध्यम से। दर्शन के माध्यम से, कृपा के माध्यम से भीतर जाते हैं। दुइ भाई हृदयेरा क्षलि' अन्धकार, धो लेते हैं। साफ़ सुथरा कर देते हैं। मैंने पहले बोलै था, माँ जैसे हैं, गन्दगी साफ़ करके घर के भीतर ले आते हैं। ऐसे है दो भाई। 

कहाँ है वो श्लोक, ग्यारवे स्कन्द में है। अइला गीता में है। सूर्य का बात बोले हैं, और साधु का बात बोले हैं। बहुत सुन्दर श्लोक, मेरा याद नहीं आ रहा है। एकादश स्कन्द में है। साधु और सूर्य दोनों को तुलना किये हैं, अइला गीता में है। पहला श्लोक मेरा याद नहीं आ रहा है। बहुत सुन्दर श्लोक है। अइला गीता में है। ठीक है। ये सूर्य, सूर्य के प्रकाश, चन्द्रमा के उपमा, दोनों गौर और नित्यानंद, भीतर जाते हैं। गुरुवा उपासना, गुरुवानुगत्य, गुरुवाश्रय से भीतर साफ़ सुथरा होता हैं। यही होता है, आश्रय से भीतर का भाव बदल जाता है। क्या है, वह श्लोक मुझे याद करना चाहिए। मुझे याद है थोड़ा, याद नहीं आ रहा है अभी। 

सन्तो दिशन्ति चक्षूंषि बहिर् अर्कः समुत्थितः ।

देवता बान्धवाः सन्तः सन्त आत्माहम् एव तू ॥ — श्रीमद भागवतम ११ २६ ३४

देख लीजिये विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर क्या लिखे हैं व्याख्यान में। वो इतना सुन्दर भाव लिखे हैं। जिन लोगों को साधु का महिमा पता है, वो लोग साधु को। साधु को सब से नहीं समझ सकते हैं। नहीं नहीं सब से नहीं समझ सकते हैं। सन्तो दिशन्ति चक्षूंषि बहिर् अर्कः समुत्थितः। सूर्य क्या करता है? सूर्य क्या भलाई करता है? साधु लोग देते हैं, चक्षु देते हैं। चक्षु दान दिलो जेहि जन्मे जन्मे प्रभु सेई। देख लीजिये भगवत के साथ क्या सम्बंद है हमारे सिद्धांत का। चक्षु दान दिलो जेहि जन्मे जन्मे प्रभु सेई हम बोल रहे हैं। और उधर वो ये बोल रहे हैं। भगवन कृष्ण बोल रहे हैं अइला गीता में, पुरुरवा को बोल रहे हैं। सन्तो दिशन्ति चक्षूंषि बहिर् अर्कः समुत्थितः। सूर्य बहार से रौशनी, किरण देते हैं, लेकिन साधु लोग भीतर से। यही नित्यानंद प्रभु की दया है। हृदयेरा क्षलि' अन्धकार। साफ़ सुथरा कर देते हैं साधु के माध्यम से। 

इसीलिए हम क्या बोलते हैं प्रभुपाद जी को - कृष्ण कृपा श्री मूर्ति। कृष्ण के कृपा का मूर्ति धारण। मूर्ति बनकर आये है साधु में। बहिर् अर्कः समुत्थित। देवता बान्धवाः सन्तः। हमारे देवता कौन हैं? देवता के बिना काम कैसे चलेगा? कर्म कांड में देवता हैं की नहीं। वो विष्णु उपासना करेंगे, पूजा करेंगे, यज्य करेंगे, इंद्र की पूजा होंगे के नहीं? शिवजी का पूजा होगा के नहीं? ब्रह्मा जी का पूजा होगा क नहीं? उनका पूजा चलता है। हमारा देवता कौन है? साधु, संत हमारे देवता हैं। नतु इंद्रदयो - चक्रपात ने बिकुल मना किये हैं। बिलकुल इनका नाम लेके। नतु इंद्रदयो -  संत हम लोगो के देवता हैं। इंद्र अदि हमारे देवता नहीं हैं। सन्तो दिशन्ति चक्षूंषि बहिर् अर्कः समुत्थितः। देवता बान्धवाः सन्तः सन्त आत्माहम् एव तू। अनुवाद पढ़ लीजिये न, सब समझ जायेंगे। किस्में में है हिंदी में या अंग्रेजी में है? पढ़ लीजिये अंग्रेजी में । पढ़ लीजिये। 

अनुवाद -

संत अपनी दृष्टि बाहर उगे हुए सूर्य की ओर लगाते हैं। देवता मेरे सगे-संबंधी हैं, भक्त मेरे भक्त हैं, और मैं उनसे अभिन्न हूँ।

अभिन्न हैं। सन्त आत्माहम् एव तू। कोई बोलेगा क्या विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर जो बोलेंगे हम उसको मान लेंगे? दूसरे सम्प्रदाय के लोग बोलेंगे आप क्यों साक्षात् हरि बोल रहे हो? आप क्यों यस्य प्रसादात बोल रहे हो? भाई हमारा भगवत सिद्धांत है। भाई तुम पंडित हो, तुम्हारे सम्प्रदाय में तुम राजा हो। प्रणाम। तुम जगत गुरु हो, तुम भगवान् को साख्यात किये हो, ठीक है भाई, हम अवमानना नहीं करेंगे। तुम्हारे पथ पर तुम हो। लेकिन हमारे सिद्धांत से हम नहीं टलेंगे। हमारा सिद्धांत यही है। हम नहीं टलने वाले हैं। भगवत सिद्धांत है, साक्ष्यात हरि, देख लीजिये। सन्त आत्माहम् एव तू। में कौन हूँ। संत का स्वरुप। मेरा स्वरुप है संत। ये भगवत सिद्धांत है। इसलिए हम बोल रहे हैं साक्षात् हरि, यस्य प्रसादात भगवत प्रसादात। 

और नित्यांनद ये अदि गुरु है। आचार्य की कृपा। नित्यानंद प्रकाश गुरु हैं। उनकी कृपा। इसीलिए हम क्यों नित्यानंद को इतना मानते हैं। क्यूंकि उनकी कृपा से आचार्य लोग इधर आते हैं। नित्यानंद प्रभु की कृपा लेकर। परमात्मा की कृपा, कृष्ण की कृपा। समझ रहे हैं न। परमात्मा की कृपा, कृष्ण की कृपा, और आचार्य की कृपा में क्या अंतर है? कृष्ण जब बोले न - सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्त: स्मृतिर्ज्ञान ( भगवतगीता १५ १५ ) ये कौन से भाव से बोले हैं? पतमात्मा के भाव। मत्त: स्मृतिर्ज्ञान ये किसका भाव में बोले? परमात्मा के भाव में बोले। में स्मृति देता हूँ, और विस्मृति भिंडता हूँ। विस्मृति कैसे आप देते है? एक दिशा में आप बोल रहे हैं आप भक्त वत्सल हैं। ये परमात्मा के काम हैं। पतमात्मा निरपेक्ष होते हैं। आपके कामना के हिसाब से वो आपको बुद्धि देते हैं। लेकिन जब बोले भगवान कृष्ण - न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय: (भगवतगीता ९ २९)। सुने हैं न आप? समोऽहं सर्वभूतेषु। लेकिन में भक्त वत्सल हूँ। उधर तो ठीक है। उधर तो ठीक है, कृष्ण का भाव उधर तो ठीक है। ये भजन्ति तु मां भक्त्य‍ा। जो मेरा भजन करता है न, में उनसे आसक्त हूँ। ये मेरा स्वाभाव है, में नहीं छोड़ सकता हूँ। कृष्ण का स्वाभाव यही है। कृष्ण निरपेक्ष हैं। निरपेक्ष हैं? परमात्मा निरपेक्ष हैं। कृष्ण क्या है? सपक्ष्य हैं। अगर कोई पूछेंगे कृष्ण क्यों सपक्ष्य हैं? कृष्ण बोल रहे हैं ये मेरा स्वाभाव है। तुम तुम्हारा स्वाभाव नहीं छोड़ रहे हो, में मेरा स्वाभाव कैसे छोड़ सकता हु? मेरा स्वाभाव यही है। इसीलिए वो भक्त को इतना प्रेम करते हैं न इसलिए बोल दिए - 

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।

साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स: ॥ — भगवतगीता ९ ३० 

अपिचेत - साधु ऐसा नहीं करते। अगर कर लिए तो फिर उनको साधु मानना चाहिए। क्यों मेरी दृस्टि में वह साधु हैं। तुम्हारे भावना से क्या है। आप बोल देंगे वह शुद्ध भक्त नहीं हैं, तुम्हारे बोलने से वे शुद्ध भक्त नहीं बनेंगे? तुम कौन हो? तुम्हारा वोट से काम चलता है क्या? तुम्हारे वोट से एक देश चलता है। तुम्हारे वोट से गोलोक वृन्दावन नहीं चलता है। वैकुण्ठ नहीं चलता है। तुम बोल देने से क्या होगा? तुम्हारे बात से काम नहीं चलता है। मेरा बात है, ठाकुर जी बोल रहे हैं न - साधुरेव स मन्तव्य:। ये मेरा बात है। वही हमारा गुरु तत्त्व है। आचार्य तत्त्व है। भगवान् सपक्ष्य हैं। भक्त। और भक्त स्वरुप कौन हैं - नित्यानंद। उनकी कृपा में। और गौर नित्यानंद की विशेष कृपा क्या है, ये सूर्य जैसा है। सुने हैं न वो भजन? नहीं नहीं इसमें है न। पतिता जीवे, द्वार द्वार। 


अधमा पतित जिवेर 

द्वारे द्वारे गिया 

हरि-नाम महा-मंत्र 

दिचेन बिलैया


जारे देखे तारे बोले

दांते त्रण धोरी' 

अमारे किनिया लोहो 

 भज गौर-हरि — भजन - अक्रोध परमानंद, रचयिता - लोचन दास ठाकुर

एहि है। सूर्य जैसा ताप है। मुझे ले जाइये। कोई कोई आदमी बोलता है न, मेरा घर का काम है, संसार का काम है। में तुम्हारा काम करूँगा, नौकर बन जाऊंगा, लेकिन तुम गौर हरि का भजन करो। वही बलराम मर्यादा पुरुषोत्तम थे। इतना  मर्यादा उनका था ब्रज में। लेकिन वो आज नित्यानंद बन गए। और किसके पास जाते थे? भाई वो आप ही के पास जाते थे। जो मांस मछली कहते हैं उनके पास हम जाते हैं? शराबी के पास जाते हैं हम? मंदिर में प्रवेश नहीं देते हैं उनको। वो शराबी है। देख लीजिये, प्रभुपाद जी पहले जब शुरू किये, तो आने वाले कौन थे। नित्यानंद का प्रकाश थे न। आने वाले कौन थे? वे जगाई मधाई थे। आने वाले वही थे। और उनका थाली साफ़ सुथरा प्रभुपाद जी ने किये। उनके लिए रसोई किये। उनके लिए रसोई किये हैं। 

.हमलोग कभी ऐसे नहीं कर सकते हैं। कभी नहीं। एक दो बार करेंगे फिर बोलेंगे वो आते हैं खा पि कर चले जाते हैं, भजन नहीं करते हैं, माला नहीं करते हैं, आनुगत्य नहीं करते हैं, हम बोलते हैं न - हमको आनुगत्य नहीं करते हैं। प्रभुपाद जी उनके लिए रसोई किये। नित्यानंद का प्रकाश हैं न। और भक्त लोग तंग हो जाते हैं - हम सिर्फ बनाएंगे वो लोग आते हैं, खाकर चले जाते हैं। ऐसे खाते हैं, थाली उधर। खा लेते हैं कुछ भी हलवा वगैरह खा लिए, और जो कुछ बच जाता है उधर फेंक कर चले जाते हैं। साफ़ करने वाले कौन हैं? प्रभपाद जी। आत्म स्वरुप से दर्शन करते हैं। ये दुखी जीव है, उनको कृपा करना है मुझे। हमलोग को पापी कौन है। ये पापी है, ये पुण्यवान है, ये ऐसा है, हमको दिखाई देता है। कृपा नहीं है न। नित्यानंद ऐसे थे। अधमा पतित जिवेर द्वारे द्वारे गिय। हरि-नाम महा-मंत्र दिचेन बिलैया। महा मंत्र देते हैं। सबको बोलते हैं तुम नाम करो। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। 

जारे देखे तारे बोले दांते त्रण धोरी'। दांत में तिनका पकड़कर गिर जाते हैं। चरण कमल में, जारे देखे तारे। सब चरण में। चरण में गिरने वाले भगवान् है। भक्त अवतार। चरण में गिरकर बोलते थे, भाई तुम भजन करो। जारे देखे तारे बोले दांते त्रण धोरी। अमारे किनिया लोहो भज गौर-हरि। एतो बोली' नित्यानंद भूमे गड़ी जाय। अगर वो लोग बोलते थे में भजन नहीं करूँगा, मेरे पास समय नहीं है, तो उनके चरण कमल में गिड़गिड़ा जाते थे। गिड़गिड़ाते थे ठाकुर जी। ये कृपा क्या है हमको पता नहीं, हम क्या समझ सकते हैं। कृपा का स्वरुप क्या है। जारे देखे तारे बोले दांते त्रण धोरी'। एतो बोली' नित्यानंद भूमे गड़ी जाय, सोनार पर्वत जेनो धुला ते लोटाये। कितना सुन्दर शरीर है प्रेम से, प्रेम से बिलकुल प्रेम का प्रकाश शरीर में आते थे। लेकिन उसमें वो गिड़गिड़ाते हैं। कर्मी लोग के चरण कमल में। वो नित्यानंद हैं। उनकी सबसे बड़ा कृपा क्या है? यही श्लोक जो हम सुन रहे थे न।  

दुइ भाई हृदयेरा क्षलि' अन्धकार

दुइ भागवत-संग करान साक्षात्कर — चैतन्य चरितामृत अदि लीला १ ९८ 

दो भगवत से साख्यातकार कराते थे। जाओ। गौड़ीय सिद्धांत हम सुन रहे थे न पहले, क्या है? पहले क्या है? गुरु आचार्य निष्ठ। आचार्य निष्ठ। ये उनकी कृपा है। नित्यानंद की कृपा है। दुइ भागवत-संग करान साक्षात्कर। साक्षात्कर। अभी हम गुरूजी को देख लिए। अभी साक्षात्कर नहीं हुआ है। प्रभुपाद जी क्या लिखे हैं। आत्म साक्षात्कर विज्ञान। साक्षात्कर शब्द लगा है। देखना अलग है, साक्षात्कार अलग है। ये देख लेते हैं, गुरूजी ऐसे हैं, प्रभुपाद जी ऐसे हैं। दुइ भागवत-संग करान साक्षात्कर । भागवतम पढ़ते हैं बोलते हैं, लेकिन भगवत से साक्षात्कर नहीं हुआ है। 

और सुखदेव गोस्वामी के सभा में इतने लोग क्यों आये थे? वो तो मज़ा देखने के लिए आये थे, परीक्षित महाराज कैसे शरीर छोड़ेंगे, चलो देखेंगे। सबसे बड़ा मज़ाक ये हो गया की भागवत साक्षात्कार। इसलिए व्यास देव उधर बैठे थे। नारद बैठे थे। सब सुन रहे थे किस से? सुखदेव से। क्यों? भगवत साक्षात्कार। भगवत से साक्षात्कार हो गया। साक्षात्कार। उनका स्वरुप अलग है। वो रस अलग मिलता है। वो बुद्धि का स्तर नहीं है। आत्म का स्तर नहीं है। परमात्मा का स्तर है। ये सब अलग रस है। भगवत साक्षात्कार। जैसे पितामह भीष्म को सुनने ले लिए सबलोग आये थे। क्या ज्ञान लेने के लिए? नहीं नहीं। वही जो भगवत साक्षात्कार किये हैं न, उसका जो भाव है। साधु संग का मतलब क्या है? यही है। 

ज्ञान तो भाई मिल जाता है। आज कल तो हर जगह मिल जाता है। यूट्यूब पर मिल जाता है, कहाँ भी ज्ञान मिल जाता है। ये ज्ञान मिल जायेगा तुमको, लेकिन एक चीज़ नहीं मिलेगा। ये साधु का सम्पति है। उनका जो भाव है, वो गुरु से साक्षात्कार करके, आचार्य निष्ठ होकर, शास्त्र निष्ठ होकर, नाम निष्ठ होकर, गौर नित्यानंद निष्ठ होकर, जो भाव भीतर उनका है न, उनका सम्पति है। वो भाव को हमको पकड़ना है साधु संग से। ये साधु संग का काम है। ज्ञान नहीं। बोलने का जैसे, वो कैसे बोलते हैं, क्या बोलते हैं, बोलने की शैली, ये सब बहार की चीज़ होती है। ये सब बहार की चीज़ है। भीतर की चीज़ यही है। वो कैसे गुरु निष्ठ हैं, कैसे गौर नित्यानंद निष्ठ हैं, परंपरा निष्ठ हैं, नाम निष्ठ हैं, वो भाव को पकड़ना है। ये भगवत से साक्षात्कार वो कर लेते हैं। करा देते है। कौन? दुइ भागवत-संग करान साक्षात्कर। गौर और नित्यानंद। उनकी कृपा से। इसलिए हमारे परंपरा में पहले जो भजन करते हैं, मंदिर में, किसी भी मंदिर में, गौर नित्यानंद प्रभुजी हैं न। हम आकर प्रार्थना करना चाहिए। की भगवत से साक्षात्कार करा दीजिये। ग्रन्थ भगवत और भक्त भगवत। साक्षात्कार होना चाहिए। गुरु में, गुरु तो ग्रहण कर लिए, वो मेरे गुरूजी हैं, लेकिन गुरु से साक्षात्कार नहीं हुआ है। समझ रहे हैं न आप। गुरु से साक्षात्कार अभी तक नहीं हुआ है। और गुरु से साक्षात्कार हो जायेगा तो मन में विषय कैसे रहेगा। ऐसे आभाव क्यों रहेगा। अलग भावना क्यों आएगा, अलग चिंता क्यों आएगा, अलग कामना क्यों आएगा? दूसरा कामना क्यों आएगा? भावना क्यों आएगा? सोचेंगे क्यों? विलाप क्यों? कुछ नहीं रहता है। साक्षात्कार हो गया। कुछ नहीं होता है। 

ये हमारे गुरूजी कहा करते थे, जब गुरु से साक्षात्कार होता है तब एक विप्लब, क्या बोलते हैं हिंदी में, विप्लब, रेवोलुशन हो जाता है। क्रांति, क्रांतिकारी विप्लब बोलते हैं न। ऐसे होता है। क्रांति।विप्लब हो जाता है। क्यूंकि पूरा जीवन बदल जाता है। साक्षात्कार हो गया तो आप कृपा प्राप्त कर लिए तो पूरा अलग जीवन, भिन्न जीवन। देख लीजिये प्रभुपाद के जो शिष्य लोग विदेश में थे, वो प्रभुपाद को जब देखे विप्लब हो गया। पूरा अलग जीवन हो गया। गुरु के साक्षात्कार का यही फल है। दीक्षा लेते हैं, ये तो प्रक्रिया है। समझ रहे हैं न, हम ये पथ पर जा रहे हैं। इसका मतलब नहीं की दीक्षा हो गया तो सब कुछ हो गया। नहीं, दीक्षा प्रारंभिक पद है। जीवन का प्रारंभिक पद है। दूसरा पद हमको समझना है। गुरु साक्षात् हरि। साक्षात्कार करना है। आचार्य निष्ठ। उसके बाद आगे बढ़ेंगे प्रेम प्राप्ति तक। ये प्रक्रिया में हम प्रवेश किये। ये गौर नित्यांनद की कृपा है। दुइ भागवत-संग करान साक्षात्कर। गुरु तत्त्व का, गुरीजी का साक्षात्कार जब हो जाता है, तब हो गया जीवन, और क्या जीवन है। और वो सुख का जीवन, दुःख का जीवन नहीं है। भक्ति का जीवन है। भक्ति का जीवन सुख दुःख का जीवन नहीं है। समझ रहे हैं न आप। वो अलग जीवन है। वो नाच नाचने वाले ठाकुर जी हो जाते हैं, गुरु हो जाते हैं। 

जैसे प्रभुपाद जी गए थे। विदेश गए थे। नाच नाचने वाले ठाकुर थे। पैसा नहीं था, भगवत लेके गए थे। उसका वितरण करना है, भुगतान करना है, और कोई नहीं पास में। अभी तो इस्कॉन है। कहीं भी जाते हैं क्या बोल देते हैं, में इस्कॉन भक्त हूँ। तुम्हारे पीछे हैं न। तुम्हारे पीछे सोसाइटी है। प्रभुपाद जी हैं। सबको पता है, तुम भारतीय हो, तुम्हारे देश में तुम प्रचार करते हो। तुम कौन सा बड़ा आदमी हो। मुझे, में ये नहीं मनाता हूँ। भारत में प्रचार करके बड़े साधु संत बन जाते हैं।  ये बड़ा साधु नहीं हैं। इधर तो पृठभूमि है, सबकुछ है, तुम बोल दिए तो क्या बड़ा हो गए तुम। जाओ विदेश जाओ। जाओ विदेश जाओ। उधर जाओ। वो जो पाश्चात्य देश तरिने लिखा है, वो हर दिन प्रभुपाद जी के साथ लगे रहेगा। दूसरा कोई पाश्चात्य देश तरिने नहीं होगा। ये महाप्रभु, नित्यानंद प्रभु के कृपा शक्ति प्राप्त किये थे न। ये कृपा का फल है। दुइ भागवत-संग करान साक्षात्कर। ये जीवन सुख दुःख का जीवन नहीं है। वो गुरु, गुरुवा आनुगत्य, गुरूजी को पकड़ लेते, गुरूजी हमको पकड़ लेते है। अब हम पीछे पीछे भागते है। गुरूजी धाईं तब पाछे पाछे। पीछे पीछे हम भागते हैं। गुरूजी थोड़ा चरण कमल दे दीजिये। लेकिन गुरूजी हमको पकड़ लेंगे। साक्षात्कार हो जाता है। 

ठीक है समय हो गया, तो सुनेगे हम थोड़ा नित्यानंद प्रभु की। में जहाँ जाता हूँ थोड़ा, हमारा दर्शन मुझे पसंद लगता है। ये मेरा आदत है। बुरा मत मानिये। लीला तो आप बहुत सुने है। आज कल सब लोग लीला बोलते हैं। मुझे तो आनंद लगता है इसमें, ये मेरा जीवन है। और कथा तो, अगर ये नहीं चलता है तो कथा बोलने का मुझे रस नहीं मिलता है। तो भरोसा आचार्य गुरु लोग, गौर नित्यानंद, उन लोगो की कृपा है। उन् लोगो को सुनेंगे। अगर आप लोगों का कोई प्रश्न है तो। 

९ ५३ हो गया। और ५ -७ मिनट है, आप बोल सकते हैं। गौर हरि, गौर हरि, गौर हरि। 

प्रश्न - धन्यावान महाराज जी, बोहोत अच्छा क्लास लिया आपने। महाराज जो आप बता रहे थे बार बार की आश्रय और आनुगत्य में रहना चाहिए। तो कैसे पता करे की हम आश्रय में हैं की नहीं, आनुगत्य में है या नहीं?

उत्तर - ये बोहोत अच्छा है। हम गुरूजी के आश्रय में है, या आनुगत्य में है, ये हमको कैसे पता चलेगा। आज कल तत्त्व आलोचना इतना नहीं होता है, इसलिए हमारा विश्वास इतना प्रगाढ़ विश्वास नहीं है। जो आश्रय में रहता है न, वो निर्भीक हो जाता है। निर्विक समझ रहे हैं न। डरपन नहीं रहता है। फीयरलेस अंग्रेजी में बोलते हैं। और उनका घमंड स्वाभाव नहीं होता है की में भगवान् की आश्रय में हूँ। अंतर में प्रेरणा मिलता है”। उत्साह, प्रेरणा आता है। भजन तो निर्मल भजन, इसका मतलब नहीं की वो आश्रय ले लिया, निर्मल भजन हो गया। लेकिन  उनके आश्रय के हिसाब से। कितना प्रतिशत वो शरणागत है, गुरु को कितना विश्वास वो करते हैं, उनका ऊपर कितना आश्रित हैं, उसी हिसाब से प्रेरणा मिलता है, उत्साह मिलता है। नहीं नहीं मेरे गुरु हैं न, मुझे कृपा करेंगे। में ठाकुर जी का सेवा करूँगा। वो छोड़ेंगे नहीं कभी। उनको प्रेरणा मिलता है। शरणागत जब आश्रय ले जाते हैं, उनको प्रेरणा मिलता है। भीतर से, हमारे आश्रय के हिसाब से। तो निर्विक हम बन जाते हैं। डरपन नहीं लगता। क्या होने वाले हैं, क्या भविस्य में होगा, ये चिंता कभी नहीं लगता। पहला।

और दूसरा क्या है। हर समय मन में ये रहता है के मुझे कुछ करना है। गुरु और कृष्ण के लिए। अपनापन जो है न, अपनापन बढ़ता है। आपकी आश्रय के हिसाब से अपनापन बढ़ता है। ये मेरा है। ये गुरु के ठाकुर जी है, गुरु का आश्रम है। ये सब भक्त लोग हैं। भवान के, गुरूजी के, प्रभुपाद जी के। अपनापन लग जाता है। ये लगता है। आश्रय से। बोहोत शास्त्र में लक्षण है। हो गया न? और बोलना है? बोलो, बोल लीजिये। क्या है। 

प्रश्न - जैसे आपने बताया महाराज की इसके लक्षण क्या है जो की आश्रय लें, पर लें कैसे आश्रय, आश्रय तो नहीं है। 

उत्तर - नित्यानंद प्रभुजी को प्रार्थना करना है। हमारे गुरूजी ये कहा करते थे। गुरूजी बोलते थे, तुम सिर्फ नित्यानंद प्रभुजी को प्रार्थना करो। क्यूंकि वो अदि गुरु तत्त्व हैं न। उनको यही बोलना है। गौर नित्यानंद, आपका कौन शुद्ध भक्त हैं आपको पता है। में तो गलत आदमी हूँ। मुझे पता है, मेरा तो गन्दगी है मन में। कौन आपका शुद्ध भक्त है, आपको पता हैं न। मेरा अपराध हो जायेगा न। किसीको गुरु स्वरुप से स्वीकार कर लेंगे पर भीतर में श्रद्धा नहीं रहता है। अगर मेरा मन एक ऐसा कुछ चयन कर लेगा की ये शुद्ध भक्त है। फिर कुछ दिन के बाद सोचते हैं, कोई भी इनके जैसे।

हमारे गुरुदेव का एक लेक्चर है, गुरुदेव बोलते हैं, शिस्य का कैसा अभिमान रहना चाहिए? ये अभिमान का, निंदा नहीं है। कोई भी मेरे आध्यात्मिक गुरु की तरह नहीं हैं। तब तुम्हारा भजन होता है। समझ रहे हैं न। ये गर्व से नहीं होता है। कोई मेरे गुरूजी का, जैसे भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर बोलते हैं, संसार में कोई नहीं है, कोई ज्ञानी पंडित, कोई वैभव कुछ भी नहीं है, मेरा गुरूजी का चरण कमल का धूलि जो है, उसका साथ बराबर है। ये भीतर का अभिमान होता है। निंदा नहीं होता है। दूसरे को सन्मान देते हैं। सब आचार्य लोगो का स्तिति जो है वैसे प्रणाम करते हैं। लेकिन भीतर का वैसे होता है। जैसे इष्ट निष्ठ जैसे बोलते हैं न, इसको गुरु निष्ठ बोलते है। हमको नित्यानंद को प्रार्थना करना है। कौन आपका शुद्ध भक्त है आपको पता है। आप उनसे मिला दीजिये। 

तब विदेशी भक्त गुरूजी से प्रश्न करते हैं। हमको कैसे पता चलेगा, हम तो कितने साधु से मिलते हैं। ये शुद्ध भक्त हैं, वो शुद्ध भक्त है। तो में असमंजस में पड़ता हूँ। गुरुदेव बोले नहीं, एक प्राकृतिक लगाव आता है। वो परमात्मा देते हैं। विस्वास परमत्मा देते हैं न। 
में आपको समझा दूंगा एक छोटा, गलत मत समझिये। पिताजी कितने प्रस्ताव देते हैं लड़के को। तुम इस से शादी करो, वो लड़की अच्छी है। अच्छी अच्छी प्रस्ताव पिताजी लाते हैं, नौकरी वाले। लेकिन लड़का सोचता है, में उसको ही शादी करूँगा। पिताजी, सब उनके पीछे पड़ जाते हैं। नहीं में उनसे शादी करूँगा। उसका विस्वास क्यों आता है? भाई उसको कर्म फल भोगना है। और परमात्मा ऐसे ही विकल्प उसको दे देते हैं। विकल्प परमात्मा से आता है न। विस्वास परमात्मा से होता है। वैसे गुरु की बात परमात्मा से होता है। गुरुदेव ये बोलते हैं, उनसे साक्षात्कार हो जाता है न, तो एक चीज़ होता है, एक प्राकृतिक लगाव आ जाता है। परमात्मा उनको विस्वास देते हैं न, एक स्वाभाविक लगाव आ जाता है। और इससे कभी हो गया न, ठाकुर जी आपको ऐसे विश्वास दे देते हैं तो न, कभी दोष नहीं दिखाई देता। दोष कभी नहीं दिखाई देता। 

कल सुनेंगे ये प्रसंग। दोष कभी दिखाई नहीं देता। नित्यानंद प्रभुजी से प्रसंग आये। निष्ठ हो जाते हैं न, दोष कभी दिखाई नहीं देता। ये विश्वास कौन दिए हैं? बुद्धि नहीं। बुद्धि अगर विश्वास दिए हैं न, में आपको विस्वास करता हूँ भुद्धि से, संदेह आ जाता है। जहाँ विश्वास है वहां संदेह है। लेकिन ये जो विश्वास है ये क्या है? परमात्मा जो देते हैं न, संदेह नहीं होता है।  

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम: ।

नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥ — भगवतगीता १० ११

यही कृपा है। तो दो चीज़ गुरुदेव बोलते थे।
एक चीज़ - गुरु के सम्बंद में गुरु का सेवा करने से, सेवा कैसे करना है, कैसे हमको जीना है, ये हमारे गुरुदेव बोहोत सुन्दर से बोले हैं सब। इसलिए हम जहाँ जाते हैं, हमारा एक पारिवारिक परम्परा जैसा हम गुरु के ऊपर चले आते हैं घूम फिर कर। क्यूंकि हमको कुछ और दिखाई नहीं देता और सिद्धांत। यही तो है। और गुरुदेव बोलते हैं दो चीज़ है, संसार में सार दो चीज़ है, जितना शास्त्र है - गुरु का सेवा, और नाम प्रभुजी का सेवा। और कुछ नहीं। हम इसीलिए करते हैं। इतना दर्शन घूम फिर कर दो चीज़ पर चले आते हैं। गुरु निष्ठ होना है, और नाम निष्ठ होना है। यही शिक्षा है। इसलिए उनसे साक्षात्कार होने से एक स्वाभाविक आकर्षण होता है। और दूसरे लक्षण क्या है। ठाकुर जी का जो व्यवस्ता है। मन में जो संदेह है, असंख्य संदेह, प्रश्न, बोलना नहीं पड़ता है। उनकी वाणी सुनने से भीतर से चला जाता है। तब तो पुस्टि हो गया, ये ठाकुर जी की व्यवस्ता है। इसलिए प्रार्थना करना पड़ता है ठाकुर जी को। व्यवस्ता आ जायेगा। वो लाये हैं न हमको इधर, वो बिच में नहीं छोड़ने वाले। संसार बिच में छोड़कर चले जाते हैं। पिताजी लाये हैं बिच में छोड़कर चले जाते हैं। शरीर छोड़ देते हैं। माँ जी हमको लाते हैं, और पत्नी भी बिच में छोड़कर चले जाते हैं। ठाकुर जी बिच में छोड़ने वाले नहीं हैं हमको। वो गुरु के पास भेजेंगे हमको। प्रार्थना करना पड़ेगा। ठीक है। समय हो गया आप लोग का। हाँ ठीक है। जय। 


बोहोत मत करो, गुरूजी को, आचार्य लोग का। हमलोग का, मेरा ऊपर आपका संदेह है, आपके ऊपर मेरा संदेह है, ये चलेगा। आपस में टकराव हो रहा है, ठीक है भाई। वो मद हस्ती है, गुरुवा अपराध हो जायेगा। ठीक है। हरे कृष्ण। 


जय गौर नित्यानंद प्रभु की जय 

जय गौर सुन्दर प्रभुजी की जय 

नित्यानंद प्रभुजी की जय 

नरसिंहदेव भगवान् की जय 

श्री राधा माधव ललिता विशाखा की जय 

राम लक्ष्मण सीता हनुमान की जय 

प्रभुपाद जी महाराज की जय 

संबित वैष्णव भक्त वृंदा की जय 

निताई गौर प्रेमानन्दे हरि हरि बोल 

हरे कृष्ण हरे कृष्ण